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गिरमिट-प्रथा

इसकी हँसी हुई। चीनी गिरमिट-प्रथाके बन्द करनेसे सम्बन्धित कानून पास किये जानेके छः महीनेके अन्दर ही प्रत्येक चीनी गिरमिटिया अपना बोरिया-वसना लेकर आफ्रिकासे चला गया। खदानें इस धक्केको सह गईं। उन्होंने जिन्दा रहनेके अन्य उपाय ढूँढ़ निकाले। अब खदानोंके मालिक और उस कानूनका विरोध करनेवाले अनुदारदलीय सदस्य दोनों ही यह मानने लगे हैं कि गिरमिट-प्रथाका उठा दिया जाना बहुत कल्याण-प्रद बात हुई, इसके लिए वे प्रशंसाके पात्र अवश्य हैं।

भारतीय गिरमिटिया प्रथा चीनी गिरमिटिया प्रथासे कम गिरानेवाली नहीं है। उसके अबतक बने रहनेका कारण यह है कि उसके कडुएपनको अनजाने ही क्यों न हो, बड़ी चतुराईके साथ, चाशनी चढ़ा दी गई है। इन दो वर्गोंके बीच मुख्य अन्तर यह है कि चीनी लोग अपने साथ एक भी स्त्री नहीं लाये थे जब कि भारतीय गिरमिटियोंके साथ १०० पीछे ४० औरतें अवश्य ही रहा करती थीं। अगर चीनी गिरमिटिया यहाँ रह जाते तो वे समाजकी बुनियादको खोखली कर देते। भारतीय गिरमिटिये इस अनाचारमें अपने तक ही सीमित रहते हैं। अभारतीयोंके लेखे यह बात महत्त्वहीन हो सकती है। परन्तु हम भारतीयोंको इसका बड़ा अचम्भा है कि हमने इस दुराचारको अपने बीच इतने दिनों तक टिकने कैसे दिया। अनाचारोंमें स्त्री-सम्बन्धी कमजोरी सबसे ज्यादा है और इसका कोई इलाज नजर नहीं आ रहा है। इसलिए इस मामलेपर कुछ अधिक बारीकीसे विचार करना चाहिए। ये सब स्त्रियाँ पत्नियाँ ही हों, सो बात नहीं है। समुद्री यात्रामें पुरुष और स्त्रियाँ एक साथ ठूंस दिये जाते हैं। विवाह तो स्वाँग ही समझिए। जहाजसे उतरनेपर प्रवासी संरक्षकके कार्यालयमें जाकर मर्द और औरतके केवल यह बयान देनेसे कि हम दोनों पति-पत्नी हैं, शादी वैध मान ली जाती है। स्वभावतः तलाक रोजमर्राकी घटना है। शेष बातें हम पाठकोंकी कल्पनाशक्तिके लिए छोड़ दे रहे हैं। एक बात बिलकुल निश्चित है कि इस प्रथासे भारतकी कोई नैतिक उन्नति नहीं हो रही है। और निवेदन है कि यहाँ आनेके बाद गिरमिटिया मजदूर पैसेकी दृष्टिसे चाहे जितना सम्पन्न क्यों हो जाये, गिरमिटसे मुक्त होनेतक उसका जो नैतिक पतन होता है, पैसेकी यह सम्पन्नता उसके इस नैतिक पतनकी पूर्ति नहीं कर सकती।

इस प्रथाको जारी रखनेके पक्षमें एक और बहुत जोरदार दलील है। यह नहीं कहा जा सकता कि भारतमें अंग्रेजों और भारतीयोंके बीच बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं। औसत अंग्रेज औसत भारतीयको अपेक्षा अपनेको अच्छा मानता है और भारतीय भी सामान्यतया इसे बर्दाश्त करता रहता है। इस प्रकारकी परिस्थिति दोनोंके लिए पतनकारी है और यह ब्रिटिश साम्राज्यके स्थायित्वके लिए एक खतरेकी बात है। कोई कारण नहीं है कि भारतीयोंको अंग्रेज अपना भाई समझना न सीखें और भारतीय यह सोचना बन्द कर दें कि वे अंग्रेजोंसे डरते रहनेके लिए पैदा हुए हैं। बहरहाल, हमारे बीचके अस्वाभाविक सम्बन्ध उस समय और भी विकृत होकर सामने आते हैं जब किसी भारतीयको गिरमिटिया होकर गोरे मालिकके नीचे काम करना पड़ता है। इसलिए जबतक भारतमें अंग्रेजों और हमारे बीचका सम्बन्ध सही पायेपर आधारित नहीं किया जाता,