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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

राजचन्द्र कविकी[१] जीवन्त संगतिका मुझपर बड़ा ऋण है――वे जन्मसे जैन थे। इस प्रकार यद्यपि मेरे अहिंसा सम्बन्धी अपने विचार संसारके ज्यादातर धर्मोके अध्ययनका परिणाम है तथापि अब उनका आधार ये शास्त्र वचन नहीं हैं। वे मेरे जीवनका एक भाग हो गये हैं और यदि किसी दिन अचानक मुझे यह पता भी लग जाये कि मैंने उक्त धार्मिक ग्रंथोंका जो अर्थ समझा था, उनका वह अर्थ नहीं है तो भी मैं अहिंसाके विषय में वही सोचूँगा जो मैं यहाँ प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।

हमारे शास्त्रोंके उपदेशका आशय कुछ ऐसा है कि जो व्यक्ति सचमुच अहिंसाका पूरी तरह आचरण करता है, संसार उसके चरणों में आ झुकता है। अपने आसपास के वातावरणपर उसका ऐसा प्रभाव पड़ता है कि सर्प और अन्य विषैले जन्तु भी उसे पीड़ा नहीं पहुँचाते। सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसीके विषय में ऐसी बात प्रसिद्ध है।

निषेधार्थक रूपमें अहिंसाका अर्थ होता है, शरीर या मनसे किसी जीवित प्राणीको पीड़ा न पहुँचाना। इसलिए अहिंसा किसी दुष्कर्मीको न चोट पहुँचा सकती है न उसके प्रति दुर्भावना रखकर उसे मानसिक पीड़ा दे सकती है। किन्तु इस कथनमें वे कष्ट शामिल नहीं हैं जो अत्याचारीको दुर्भावनासे नहीं, मेरी स्वाभाविक चेष्टासे होते हैं। यदि मुझे लगे कि कोई व्यक्ति किसी बच्चेपर प्रहार करने ही वाला है, तो अहिंसा मुझे उस बच्चेको उस व्यक्तिके सामनेसे झपटकर अलग कर देनेसे नहीं रोकती। यदि मैं उस बालकका किसी भी रूपमें अभिभावक हूँ तब तो अहिंसाके समुचित आचरणका यह तकाजा है कि मैं अत्याचारीके सामनेसे उस बच्चेको हटाऊँ। इसलिए दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहियोंका यह कर्त्तव्य था कि वहाँकी संघ-सरकार उनके प्रति जो अत्याचार करना चाहती थी वे उसका प्रतिरोध करें। उनके मनमें सरकारके प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी। और कभी सरकारको उनकी मददकी जरूरत पड़ी, तो उन्होंने मदद देकर यह जाहिर भी किया। “उनके प्रतिरोधका स्वरूप मृत्यु तक का कष्ट उठाकर सरकारकी आज्ञाओंकी अवहेलना करना था।” अहिंसाका अर्थ जान-बूझकर स्वयं कष्ट भोगना होता है; हम जिसे अत्याचारी मानते हैं उसे जान-बूझकर कष्ट पहुँचाना नहीं।

अपने भावात्मक रूपमें अहिंसाका अर्थ होता है, प्रेम और उदारताकी पराकाष्ठा। यदि मैं अहिंसा-व्रती हूँ तो मुझे अपने शत्रुको प्यार करना चाहिए। यदि कोई शत्रु अथवा अपरिचित व्यक्ति मेरा बुरा करता है तो मुझे उससे भी वही बरताव करना चाहिए जो मैं, मुझसे बुरा व्यवहार करनेवाले अपने पिता या पुत्रके साथ करूँगा। इस सक्रिय अहिंसामें सत्य और अभय अनिवार्य रूपसे आ जाते हैं। चूँकि हम अपने प्रियको धोखा नहीं दे सकते इसलिए न हम उससे डरते हैं न उसे डराते हैं। जीवनकी भेंट सबसे बड़ी भेंट है। जो व्यक्ति वास्तव में जीवन-भेंट कर देता है वह सारी शत्रुताको निरस्त कर देता है। वह सम्मानपूर्ण समझौतेका रास्ता खोल देता है। और जो व्यक्ति स्वयं निर्भय नहीं है, यह भेंट देनेमें असमर्थ है। इसलिए उसे स्वयं तो निर्भय होना ही चाहिए। इस तरह अहिंसा और कायरताका संग नहीं हो सकता। अहिंसाके पालनके लिए साहसकी पराकाष्ठाकी अपेक्षा है। सिपाहीके गुणोंमें यह सर्वाधिक सिपाहियाना

  1. १. देखिए “भाषण: अहमदाबाद में राजचन्द्र जयन्तीके अवसरपर”, २१-११-१९१५।