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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हो तो सरकार और बागान मालिकोंकी सहायता लेकर, करनेके लिए आया हूँ। मेरा मन्शा और कुछ नहीं है। मैं यह विश्वास नहीं कर सकता कि मेरे आनेसे सार्वजनिक शान्ति भंग होगी या कुछ लोग जानसे हाथ धो बैठेंगे। मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि ऐसे मामलोंका मुझे काफी अनुभव है। परन्तु प्रशासनका खयाल कुछ और है। मैं उसकी कठिनाईको बखूबी समझ रहा हूँ और मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि प्राप्त जानकारीके आधारपर कार्रवाई करनेके अलावा उनके सामने और कोई रास्ता नहीं है। कानूनकी पाबन्दी करनेवाले नागरिककी हैसियतसे मेरे मनमें स्वभावतः पहले-पहल यही विचार आना चाहिए था――जैसा कि हुआ भी――कि दिये गये हुक्मकी तामील करूँ। मैं उसकी तामील जिन लोगोंकी खातिर में यहाँ आया हुआ हूँ उनके प्रति अपनी कर्तव्य-भावनाका हनन किये बिना नहीं कर सकता था। मेरी समझमें इस अवसरपर तो मैं उनके बीच रहकर ही उनकी सेवा कर सकता हूँ। इसलिए अपनी मर्जीसे इस जगहको छोड़कर चले जाना मेरे लिए असम्भव था। कर्त्तव्य-पालनकी इस असमंजसकी घड़ीमें उनके बीचसे अपने हटाये जानेकी जिम्मेदारी में प्रशासनके ऊपर ही छोड़ सकता हूँ ।

मुझे यह बात भली-भाँति मालूम है कि भारतके सार्वजनिक जीवन में मेरी जैसी स्थितिके जन-सेवकको उदाहरण उपस्थित करते समय बहुत सावधान रहना चाहिए। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि हम लोग पेचीदगी भरे हुए जिस विधानके अन्तर्गत रहते हैं उस विधानमें स्वाभिमानी व्यक्तिके लिए मेरी जैसी परिस्थितिमें सही और सम्माना-स्पद केवल एक ही मार्ग रह जाता है, अर्थात् हुक्म-उद्गलीकी सजा विरोध किये बिना सहन करना; और यही मैंने स्वीकार किया है। मैंने इस वक्तव्यको देनेका साहस जो स्पद केवल एक ही मार्ग रह जाता है, अर्थात् हुक्म-उद्गलीकी सजा विरोध किये बिना सहन करना; और यही मैंने स्वीकार किया है। मैंने इस वक्तव्यको देनेका साहस जो सजा मुझे दी जानेवाली है उसमें किसी प्रकारकी रियायत करानेकी इच्छासे नहीं बल्कि यह जतानेके लिए किया है कि जो हुक्म मुझे दिया गया था उसे न माननेका कारण सरकारके प्रति आदर-भावमें कमी नहीं बल्कि अपने जीवनके उच्चतर विधान―― अन्तरात्माके आदेशका पालन था।

[अंग्रेजीसे]
लीडर, २२–४–१९१७; सिलैक्ट डॉक्यूमेंट्स ऑन महात्मा गांधीज मूवमेंट इन चम्पारन, सं० २८, पृष्ठ ६९-७० से भी।