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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अपनी जमीन जोतनेके लिए उनकी जरूरत होती है। फिर, उन्हें इसका बहुत ही कम पैसा दिया जाता है।

फैक्टरियोंके नौकरोंको बहुत ही कम वेतन मिलता है और ये नौकर मजदूरोंकी मजदूरीसे दस्तूरी वसूल करते हैं जो अक्सर उनकी दैनिक मजदूरीका पाँचवाँ हिस्सा होती है। वे गाड़ियों और हलोंके किराएमें से भी हिस्सा वसूल करते हैं।

कुछ गाँवोंमें चमारोंको किसानोंके मृत जानवरोंका चमड़ा फैक्टरियोंको दे देनेके लिए मजबूर किया गया है। पहले चमार मृत जानवरके बदलेमें किसानोंको जूते और हलोंमें लगनेवाले चमड़ेके नाड़े दिया करते थे और उनकी स्त्रियाँ किसानोंके घरोंमें प्रसूतिके मौकेपर काम करती थीं। अब उन्होंने यह सब काम बन्द कर दिया है। कुछ फैक्टरियोंने तो इन चमड़ोंको इकट्ठा करनेके लिए गोदाम भी खोल रखे हैं।

जिन किसानोंने फैक्टरियोंमें मनमाने हुक्म बजानेसे इनकार किया है उनपर गैरकानूनी और भारी-भारी जुर्माने ठोके गये हैं।

(प्राप्त गवाहियोंके अनुसार) किसानोंको झुकानेके लिए जमींदार जो अन्य अनेक उपाय काममें लाते हैं उनमेंसे कुछ ये हैं उनके गाय-बैल आदि पकड़वाकर काँजी हौजमें डाल देना; उनके घरोंपर चपरासी बिठा देना; उनके नाई, धोबी, बढ़ई और लुहार बन्द कर देना; गाँवके कुएँ बन्द कर देना; उनके घरोंके सामने या पिछवाड़ेकी जमीन और रास्ते जोतकर कुओं और चरागाहोंपर उनका जाना मुश्किल कर देना; उनके खिलाफ दीवानी मुकदमे चलाना या चलवाना; उनके खिलाफ फौजदारीकी शिकायतें करना; उनपर शारीरिक बलका प्रयोग करना और उन्हें बेजा तौरपर बन्द कर रखना। जमींदारोंने किसानोंको अपनी मर्जीके मुताबिक चलानेके लिए उनके खिलाफ यहाँकी प्रथाओंका दुरुपयोग किया है और जहाँ जरूरत हुई है वहाँ वे कानूनको अपने हाथों में ले लेनेसे भी नहीं हिचके हैं। फलतः दीन-हीन असहायताकी जो हालत मैंने यहाँके किसानोंमें देखी है वैसी भारतमें मैं जहाँ भी गया हूँ वहाँ कहीं नहीं देखी।

वे [जमींदार] जिला-बोडोंके सदस्य हैं, चौकीदारी कानूनके तहत ‘असेसर’ हैं और अपने काँजी हौज रखते हैं। किसान उनकी इस अधिकार और सामर्थ्यकी स्थिति से आतंकित हैं। वे सड़कोंका जो किराया देते हैं उसका आधा आना प्रति रुपया किसान भी देते हैं किन्तु उन्हें सड़कोंका उपयोग शायद ही करने दिया जाता है। उनकी गाड़ियों और बैलोंको, जिन्हें सड़कोंकी शायद सबसे ज्यादा जरूरत है, उनका उपयोग क्वचित्ही करने दिया जाता है। यह कहनेसे कि यह बात चम्पारनमें ही नहीं दूसरी जगहोंमें भी है, इस शिकायतकी गुरुतामें कुछ कमी नहीं होती।

मैं जानता हूँ कि कुछ औद्योगिक प्रतिष्ठान इस नियमके अपवाद भी हैं किन्तु सामान्य आरोपोंके रूपमें ऊपर जो कुछ भी कहा गया है उसे सिद्ध किया जा सकता है।

मैं यह भी जानता हूँ कि कुछ भारतीय जमींदारोंपर भी ये सब आरोप लगाये जा सकते हैं। किसान जिस प्रकार गोरे जमींदारोंके अन्यायोंसे मुक्ति पाना चाहते हैं उसी प्रकार उनके अन्यायोंसे भी मुक्ति पाना चाहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि गोरे जमींदारोंने ये अन्याय खुद शुरू नहीं किये, उन्होंने तो पहलेसे चली आई एक दूषित प्रणाली विरासतमें पाई। किन्तु यह भी सच है कि अपनी बौद्धिक प्रवीणता और अधिकारपूर्ण