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३१०. पत्र: नरहरि परीखको

बेतिया
वैशाख बदी ११ [मई १७, १९१७][१]

भाई श्री नरहरि,

आपका पत्र मिल गया है। मैंने उसे ध्यानसे पढ़ लिया। मुझे विश्वास है कि आपने जो कदम उठाया है, उसमें कोई भूल नहीं हुई है। में छगनलालको लिखे देता हूँ कि वह आपको ७५ रुपया मासिक देता रहे। यदि आप हमेशा इतने रुपयोंमें काम चलाते रह सकें तो वह पर्याप्त समझा जायेगा। इसके लिए भी आपको संयम रखना होगा। जान पड़ता है, अभी ऐसे लोगोंके मिलनेका समय नहीं आया जो पैसेके बिना अथवा बहुत ही थोड़े पैसेमें अपना काम चला सकें। उसके लिए परिवारके पूरे वातावरणमें परिवर्तन होना आवश्यक है। यह बात मुख्यतः गुजरातके बारेमें सही है।

आप अध्यापनका और गोखलेके भाषणोंके अनुवादका बोझ एक-साथ उठा सकेंगे, इसमें मुझे सन्देह है। अध्यापनके सम्बन्धमें मेरे विचारोंको कार्यान्वित करना बहुत श्रमसाध्य कार्य है। हम अपने विद्यार्थियों में अपनी आत्मा उँडेल देना चाहते हों तो हमें निरन्तर उनके अध्यापनका ही विचार करते रहना चाहिए। यदि हम उनपर रोष न करते हुए उन्हें अच्छीसे-अच्छी भाषामें रोज-ब-रोज जो भी ज्ञान देना हो, दें, तो उसमें हमारा बहुत-सा समय चला जायेगा। फिर हमें तो शिक्षा-पद्धतिके सम्बन्धमें भी विचार करना है। सब कुछ नई पद्धतिसे ही सिखाना है। किन्तु आपको अनुवादका पूरा काम किये बिना भी छुटकारा नहीं मिलनेका। इतना सब मैं सिर्फ आपकेऔर अन्य सारे शिक्षकोंके भावी दायित्वको ध्यानमें रखकर लिख गया।

मैंने भूगोलको अलग विषय नहीं माना है। इसलिए मैंने लिखा था कि जो इतिहास पढ़ायेगा वही भूगोल भी पढ़ायेगा। फिर भी यदि फिलहाल उन्हें अलग-अलग विषय मानना ठीक लगे तो मान सकते हैं। यदि अनुभवके बाद परिवर्तन करना उचित लगा, तो कर लेंगे।

सभी शिक्षकोंको सप्ताह में कमसे-कम एक बार इकट्ठा होना और आपसमें अनुभवोंका आदान-प्रदान करके जैसा उचित जान पड़े, वैसा परिवर्तन करना पड़ेगा। मुझे लगता है कि शिक्षण पद्धतिके सम्बन्धमें समझदार विद्यार्थियोंसे भी सलाह-मशविरा करना और उनसे सुझाव मांगना चाहिए।

प्रत्येक विद्यार्थीके स्वास्थ्यका खयाल रखना प्रत्येक शिक्षकका कर्त्तव्य है। इसका मुख्य दायित्व उस शिक्षकपर होगा, जिसके पास आरोग्यका विषय है।

शिक्षकोंको पाठ्यक्रमके जिन विषयोंका ज्ञान न हो, उनका ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए, और उसमें भी मुख्यतः हिन्दीका ज्ञान। हिन्दी कितनी आवश्यक है, यह मैं

 
  1. १. इस तारीखको गांधीजी वेतियामें थे।