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अनाथाश्रमके लिए दो शब्द

है। मेरा तो विश्वास है कि अच्छे कार्योंके लिए भारत-जैसे गरीब देशमें भी पैसा मिल सकता है। कार्य अच्छा है, यह साबित करना कार्यकर्ताओंके हाथमें है। जो संस्थाएँ क्षीण हो गई हैं उसका कारण धनकी कमी नहीं लेकिन दृढ़, श्रद्धालु तथा चरित्रवान् कार्यकर्ताओंकी कमी है। यह मान्यता सही अथवा गलत, चाहे जो हो, यह बात तो पक्की है कि अनाथाश्रम एक साथ तीन घोड़ोंपर चढ़नेका प्रयत्न करते हैं लेकिन तीनोंमें से एकको भी सँभाल नहीं सकते।

उपरोक्त स्थितिमें अनाथ बालक सनाथ कैसे हो सकते हैं? उन्हें निरन्तर अपनी [अनाथ] स्थितिका भान होता रहता है। हम इन आश्रमोंमें अपने बालक कभी नहीं भेजते। यदि ये आश्रम अनाथोंके नाथ हों तो व्यवस्थापकोंके बालक भी इनमें देखनेको मिलें। वे [व्यवस्थापक] निधड़क होकर किसी और कारणसे नहीं तो अपनेको कसौटीपर कसनेकी खातिर ही अपने बालकोंको अनाथ बालकोंके साथ रखें। अपने गहरे अनुभवके कारण में यह कहना चाहता हूँ कि यह माँग बहुत अधिक नहीं है। अनाथ बालकोंको अपंगोंके साथ रखा जाता है इतना ही नहीं और भी बहुत-सी चीजें ऐसी होती हैं जिनसे इन बालकोंको अपनी हेय स्थितिका भान बना रहता है। यदि अनाथ-आश्रम केवल अनाथ बच्चोंके लिए ही हों तो वे थोड़े ही समयमें स्वावलम्बी बन सकते हैं। इस सम्बन्ध में हम साल्वेशन आर्मी[१] (मुक्ति सेना) से बहुत कुछ सीख सकते हैं। वे जो अनाथाश्रम चला रहे हैं उनमें प्राण है। हमारे आश्रम तुलनात्मक दृष्टिसे निष्प्राण हैं। उन्होंने हजारों बालकोंको आश्रय दिया है, उन्हें आदमी बनाया है, उन्हें धन्धोंमें लगाया है। हमारे आश्रमके बालकोंको इस तरहका संरक्षण नहीं मिला है। कुछ-एक बालकोंको छोटी नौकरियाँ मिली हैं। इनका लेखा-जोखा करनेकी आवश्यकता नहीं। हमारे यहाँ बालकोंके बड़े हो जानेपर उन्हें अधिकतर छुट्टी दे देनेकी रीति प्रचलित है। मुक्ति सेनामें ऐसा कुछ नहीं है। जैसे परिवारमें बच्चे बड़े होते हैं तब उन्हें परिवारमें एक रक्षक तथा पोषक बढ़ गया, इस रूपमें माना जाता है वैसे ही वहाँ अवस्थाको प्राप्त होनेपर वालक कारखानों में काम करने लग जाते हैं। हमारे आश्रमों में भी वैसे ही कौटुम्बिक-यायका समावेश करनेकी आवश्यकता है।

जैसे हम अनाथ बच्चोंको रहने, खाने और पहननेके लिए देते हैं, वैसे ही उन्हें शिक्षा और आश्रमके कारखानोंमें नौकरी दे सकते है। आश्रममें हम महान् राष्ट्रीय प्रयोग कर सकते हैं, राष्ट्रीय पद्धतिके अनुसार शिक्षा दे सकते हैं, उद्योग सिखा सकते हैं, खेती सिखा सकते हैं और जो धन्धे नष्ट होते जा रहे हैं उन्हें बचा सकते हैं। ऐसी व्यवस्थाके परिणामस्वरूप आजके अनाथ बालक कल अपने आश्रमके शिक्षक, कारीगर तथा नेता बन सकते हैं। इन आश्रमों में ही हम अपने वातावरणके अनुकूल भारत-प्रतिरक्षा सेना उत्पन्न कर सकते हैं।

यदि मेरा यह खयाल ठीक हो तो समस्त आश्रमोंके अथवा बम्बई क्षेत्रके आश्रमोंके नेताओंको एकत्रित करके उनकी राय लेनेके बाद सब आश्रमोंके लिए एक पद्धति निश्चित कर ली जा सकती है। सबके लिए एक ही व्यवस्थापक मण्डल हो सकता

  1. १. विलियम बूथ द्वारा १८८० में सेवा और धार्मिक प्रचारके लिये प्रारम्भ किया गया संगठन।