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शरहबेशीके सम्बन्ध में चम्पारन-समितिके सदस्योंके नाम गुप्त टिप्पणी

है और सरकारने भी कई बार रैयतको उससे मुक्त करानेकी कोशिशें की हैं। सरकारकी ओरसे जो साक्ष्य हमारे सामने प्रस्तुत किया गया है उससे पता चलता है कि अधिकारियोंको भी उससे छुटकारा पानेके लिए अपनी सारी चातुरी लगा देनी पड़ी है; वे हर तरहसे तिन-कठियाको ही दोषी ठहराते हैं। श्री हिटीके इस कथनमें काफी सचाई है कि वे तिन-कठियाको ही अबवाब इत्यादिके लिए जिम्मेदार ठहरानेके पक्षमें कोई प्रत्यक्ष प्रमाण तो नहीं जुटा सकते, लेकिन उनका खयाल है कि उसकी जड़में भी वही है। मेरा निवेदन है कि ऐसी परिस्थितिमें समिति तिन-कठियाकी स्पष्ट निन्दा करने और रैयतकी ओरसे किसी भी प्रकारकी अदायगीके बिना उसे हटानेकी सिफारिश करनेके लिए बाध्य है। एक बार यह सिद्ध हो जानेपर कि गुलामी प्रथा पापपूर्ण है, गुलामोंसे उसे हटानेकी कीमत अदा करनेके लिए नहीं कहा गया था।

इसलिए मेरा सुझाव है कि समिति कमसे-कम इतना तो कह सकती है कि:

(१) तिन-कठियाको बिना शर्त हटा दिया जाये।
(२) शरहबेशीकी दरपर जो वसूली की जा चुकी है, उसमें कोई हस्तक्षेप न करते हुए शरहबेशीको हटा दिया जाये।
(३)शरहबेशीको रद कर देना चाहिए, फिर चाहे वह ठेकेके रूपमें पंजीकृत हो या समझौते के रूपमें; लेकिन खाम[१] या ठेकेके गाँवोंमें शरहवेशीसे पहलेके लगानमें की जा सकनेवाली वृद्धि की जा सके।

इस प्रकारके बन्दोबस्तका परिणाम यह होगा कि उच्च न्यायालयसे मुकदमा वापस हो जायेगा और जहाँतक तिन-कठिया और शरहबेशीका सम्बन्ध है स्थायी शान्ति स्थापित हो सकेगी।

यदि इस मामलेका निर्णय न्यायालयोंपर छोड़ा जाये तो उसके फलस्वरूप अन्तहीन विवाद उठ खड़े होंगे और उनमें जिनके पास थैली ज्यादा बड़ी होगी वे ही विजयी होंगे। इससे सम्बन्धित पक्षोंके बीच कटुता बढ़ेगी और यदि कहीं रैयतकी जीत हो गई तो ‘स्वीनी[२]-सैटेलमेंट’ के अन्तर्गत निर्णीत कई मामलोंके बारेमें नये सिरेसे मुकदमे दायर किये जायेंगे और तब जमींदारोंको उपर्युक्त योजनाके अन्तर्गत प्रस्तावित लगानकी बढ़ोतरीसे वंचित हो जाना पड़ेगा। ऐसी परिस्थिति सरकार और समिति दोनों ही के लिए सन्तोषकारक नहीं होगी। और रैयतकी दृष्टिसे तावान यदि बुरा है तो शरहबेशी उससे भी बुरी चीज होगी। पहली चीज मौजूदा पीढ़ीके लिए दुःखदायी है लेकिन दूसरी तो आगामी पीढ़ियोंको भी बाँध कर रख देगी। हम यह भी जा हैं कि शरहबेशीका प्रस्ताव और उसकी वसूली एक ऐसे समय हुई जब कि बागान-मालिकोंके लिए नीलकी खेती लाभप्रद नहीं रह गई थी और राजपुर प्रतिष्ठानने यह भी सिद्ध कर दिया था कि लगभग बिना किसी अतिरिक्त लागतके नीलकी खेती खुश्की पद्धतिसे की जा सकती है। इस प्रकार शरहबेशीके रूपमें बागान मालिकोंको लगानमें

 
  1. १. राज्यके सीधे प्रबन्धके अन्तर्गत गाँव।
  2. २. जे० ए० स्वीनी, उत्तर बिहारके सैटिलमेंट अफसर।