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परिशिष्ट

अभी सामान्य संसार इसके लिए तैयार नहीं है और न अगले कई हजार वर्षों तक तैयार होगा। मनुष्य बाहरी कानूनके दबावके बिना केवल तभी चल सकता है जब वह आन्तरिक दबाव, भीतरके पवित्र कानूनसे मार्गदर्शन ले। किन्तु गांधी तो निःस्वार्थ, शुद्ध, सरल और निरन्तर आत्मत्यागका जीवनयापन करते हैं। तब उन्हें किस बाहरी कानूनकी आवश्यकता है? ऐसे मनुष्य जिस राष्ट्रमें जनमते हैं वे उसकी अमूल्य निधि होते हैं और उसे वीरत्व एवं उच्च चारित्र्यकी प्रेरणा देते हैं।

निदान, मैं कहती हूँ कि जहाँ हम श्री गांधीके कुछ विचारोंको वर्तमानकी अपेक्षा किसी दूरस्थ भावी पीढ़ीके लिए अधिक उपयुक्त मानते हैं और उनकी राजनीतिको, यदि हम उसे राजनीतिकी संज्ञा दें तो अव्यावहारिक और वैधानिक परिवर्तनके मार्ग में एक रुकावट समझते हैं, वहाँ आंग्ल-भारतीयों या नौकरशाहीकी ओरसे प्रहार किये जानेपर हम――हममें से लाखों लोग――एक होकर उनका साथ देंगे। हम उनके जीवन और उच्च आदर्शोंके कारण उनका सम्मान करते हैं और उनके प्रति श्रद्धा रखते हैं। भले ही हम वर्तमान विषम स्थितियों में उनके शब्दोंको अबुद्धिमत्तापूर्ण क्यों न समझते हों।

[अंग्रेजीसे]
न्यु इंडिया, १९-२-१९१६

परिशिष्ट २

अहिंसा परमोधर्मः――एक सत्य या सनक?

लेखक: लाला लाजपतराय

न सत्यसे बड़ा कोई धर्म है और न ‘अहिंसा परमोधर्म:’ [के अनुसार अहिंसा] से अधिक उदात्त कोई जीवन-चर्या। यदि कोई मनुष्य अहिंसाको ठीक समझ ले और ठीक तरहसे उसे जीवनमें उतारे तो वह सन्त और देवता बन सकता है। किन्तु यदि वह इसे ठीक तरहसे न समझे और ठीक तरहसे लागू न करे तो इससे वह कायर, कापुरुष, हीन और मूढ़ बन जाता है। कभी भारतीय इसका ठीक अर्थ समझते थे और इसका उचित व्यवहार भी करते थे; इसलिए वे सच्चे, उदात्त और वीर पुरुष होते थे। उसके बाद कुछ अच्छे लोगोंमें, जो पूर्ण सदाशयी और अन्यथा सन्त प्रकृतिके थे, अहिंसाने एक बहमका रूप ले लिया और उन्होंने उसे समस्त सद्गुणोंसे ऊँचे आसनपर ही आसीन नहीं कर दिया, बल्कि उसे पवित्र जीवनकी एकमात्र कसौटी बना दिया। उन्होंने अपने जीवनमें ही इसकी अति नहीं की, बल्कि इसे सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय सद्गुण बताकर अन्य सब बातोंकी उपेक्षा कर दी। अहिंसासे जो उनके मतसे पवित्रताकी सर्वोच्च कसौटी थी, अन्य सब सद्गुण, जिनसे मनुष्य और राष्ट्र उदात्त बनते हैं, हीन करार दे दिये गये। साहस, वीरता और शौर्य सब गुण निकृष्ट हो गये। प्रतिष्ठा और आत्मसम्मानका महत्त्व कम हो गया। देशभक्ति, देशप्रेम, कुटुम्बप्रेम और जातीय सम्मान सब समाप्त हो गये। अहिंसाका ऐसा विकृत या अनुचित उपयोग करनेसे या अन्य प्रत्येक वस्तुको उपेक्षा करके उसे अति महत्त्व देनेसे ही हिन्दुओंका सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक