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परिशिष्ट

वाले दाम दुगुने किये जा चुके हैं ताकि नीलका जो दाम दिया जाता है उसका उसी अवधिमें अन्य भावोंके स्तरमें जो आम वृद्धि हुई है उससे सामंजस्य किया जा सके। किन्तु नीलके दाम प्रत्येक कालमें नियत रहने और आम भावोंमें लगातार वृद्धि होनेका परिणाम यह होता है कि यदि किसी कालके आरम्भमें दाम उचित थे तो वे उसके अन्तमें बहुत कम हो गये। यह बात स्वतः असन्तोष उत्पन्न करती है और हम देखते हैं कि १८९७ में नीलके दाममें जो वृद्धि की गई थी उसके सिवा हर बार नीलके दाम झगड़े और असन्तोषके बाद ही बढ़ाये गये थे। अत: इस प्रथाके विरुद्ध एक उचित आपत्ति यह है कि नीलके दाम उपद्रव और आन्दोलन किये बिना कभी बढ़ाये ही नहीं गये।

दूसरी बात यह है कि दाम रकबेपर नियत किये जाते हैं और वे फसलकी पैदावारके अनुसार नहीं बदलते। इससे स्पष्टतः दो दोष पैदा होते हैं। नीलके कोठीदार नील बोनेके लिए स्वयं खेत छाँटते हैं। इस प्रथाके इस पक्षपर प्रायः आपत्ति की गई है। निश्चय ही इसका दुरुपयोग सम्भव है, अर्थात् यह कहा जाता है कि गाँवके बिलकुल आसपासकी जमीनें, जो बहुत खतीली और सर्वोत्तम होती हैं, प्रायः नील बोनेके लिए छाँटी जाती हैं। किन्तु जमीनके चुनावके बारेमें किये गये इस आरोपका असली तत्त्व यह नहीं है कि इसका दुरुपयोग किया जायेगा, बल्कि यह है कि यह प्रथा ही बुरी है। जबतक नील उत्पादकको अच्छी या बुरी फसलका दाम एक ही देना पड़ता है, तबतक वह नील बोनेके लिए किसानकी जमीनमें से अधिक अच्छी जमीन ही छाँटेगा। इस तरह जमीन छाँटनेके विरुद्ध किसान रोष प्रकट करता है――इसलिए नहीं कि उसकी सर्वोत्तम जमीन छाँटी जाती है, बल्कि इसलिए कि उसकी काम करनेकी स्वतन्त्रतामें हस्तक्षेप होता है। हमारा खयाल है कि नीलकी खेतीकी अप्रियताका मुख्य कारण यही है; इस सम्बन्धमें यह प्रथा मूलत: सदोष है।

प्रति एकड़ एक नियत दाम देनेका प्रत्यक्ष परिणाम यह होता है कि इस प्रथामें एक दूसरा विशेष दोष उत्पन्न हो जाता है। यह विशिष्ट दोष भी नीलकी खेतीकी अप्रियताका उतना ही बड़ा कारण है। यह विशिष्ट दोष है कोठीदारके मातहत कर्मचारियों द्वारा नीलकी खेतीकी कड़ी देखरेख। निस्सन्देह इस देखरेखसे तमाम छोटे-मोटे जुल्मोंकी गुंजाइश पैदा हो जाती है और किसान खेतीके विभिन्न कार्योंको अपनी ज्यादासे-ज्यादा फुरसतके समयके बदले कोठीदारके कर्मचारीकी जब मर्जी हो जाये तभी करनेके लिए मजबूर किये जानेपर रोष प्रकट करते हैं। इस प्रथासे कोठीदारके कारिन्दोंको उन किसानोंपर अत्याचार करनेका मौका मिलता रहता है जिनसे उन्हें द्वेष हो सकता है या जिनसे वे अपने अनुग्रहकी कीमत वसूल करना चाह सकते हैं। कोई मैनेजर अच्छा हो तो वह अपने अधीनस्थ कर्मचारियोंके जुल्मोंको बहुत सीमित कर सकता है; किन्तु अच्छेसे-अच्छा मैनेजर भी अपने अल्प वेतन-भोगी अधीनस्थ कर्मचारियोंको सत्ता हाथमें आनेपर अत्याचार करनेसे बिलकुल नहीं रोक सकता। जबतक दाम रकबेपर दिये जाते हैं और पैदावारके मुताबिक घटते-बढ़ते नहीं, तबतक कड़ी देखरेख आवश्यक होगी। इस दृष्टिसे भी हम समझते हैं, यह प्रथा मूलतः बुरी है।

तिन-कठिया प्रथाके विरुद्ध एक दूसरी आपत्ति यह है कि नीलकी खेतीसे बाध्यताकी शर्त जुड़ी हुई है। हमें विश्वास है कि पिछले पचास वर्षोंसे तिन-कठिया प्रथाके