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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जिसका ब्याज १२ प्रतिशत था। यह तरीका तावान या तामाम कहा जाता है। इन दोनों ही वर्गोंके किसानोंको यह वचन दिया गया कि शरहबेशी या तावान दे चुकने-पर कोठीदार या उनके उत्तराधिकारी भविष्यमें तिनकठियाकी शर्तोंके अन्तर्गत उनको नीलकी खेती करनेके लिए न कहेंगे।

शरहबशी केवल पाँच कोठियोंने ली है, तुरकौलिया, मोतीहारी, पीपरा, जलहा और सिरनी। इनमें से जलहा और सिरनी तुरकौलिया की छोटी शाखा कोठियाँ हैं जो पिछले कुछ बरसोंमें बेच दी गई थीं। इनमें भी केवल उन गाँवोंमें ही शरहवेशी ली गई है जिनमें कोठीदारोंको बेतिया राजसे मुकर्ररी पट्टा मिला हुआ है और उन बहुत थोडेसे गाँवोंमें ली गई है जिनमें उनको मालिकाना हक हासिल हैं। जिन गांवोंमें इन कोठीदारोंको अस्थायी पट्टा मिला हुआ है, उनमें उन्होंने तावान लिया है। इसमें केवल पीपरा ही अपवाद है। इनके अलावा दूसरी नौ कोठियोंने भी तावान लिया है जिनमें राजपुर, बाड़ा, बैरिया और भेलवा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। जिस दरसे शरहवेशी ली गई है, उसमें अलग-अलग कोठियोंके गाँवोंमें बहुत अन्तर है; किन्तु औसत वृद्धि पहले लगानसे ५० से ६० प्रतिशत तक है। निम्न तालिकासे प्रकट होता है कि चार कोठियोंके गाँवोंमें लगान औसतन कितना बढ़ाया गया और लगानकी पहली रकमसे उसका प्रतिशत अनुपात क्या है :

क्रम संख्या कोठीका नाम प्रति एकड़ लगानमें
वृद्धि
पहले लगानसे प्रतिशत
अनुपात
    रु॰ आ॰ पा॰  



तुरकौलिया
जलहा
मोतीहारी
पीपरा
०—१५—०
१—३—०
१—६—६
०—१५—०
५० प्रतिशत
५५ {{{1}}}
६० {{{1}}}
७५ {{{1}}}

पीपरामें जहाँ यह लगान असाधारण रूपसे कम था, प्रतिशत अनुपात सबसे अधिक है। तावानकी दरें भी अलग-अलग थीं और वह प्रायः किसानकी जितनी जमीनमें नील बोया जाता था उसीपर कूता गया था, अर्थात् बीघे में तीन कट्ठेपर। अक्सर यह उस रकमके आधारपर नियत किया गया था जो नीलकी कोठीको किसानोंसे करार तोड़नेपर नीलके हर्जाने के रूपमें मुकदमा चलानेपर मिला था। तावानकी रकम ६६ रुपयेसे २० रुपये प्रति एकड़ तक थी और सम्भवतः उसका औसत प्रति एकड़ ५० और ६० रुपये के बीचमें था और किसानकी कुल जमीनपर ७ रु॰ ८ आने से ९ रु॰ तक प्रति एकड़के बराबर होगा।

इस परिवर्तनका जिन कोठियोंपर प्रभाव पड़ा, उनमें पहले तिनकठियाकी शर्तोंके अन्तर्गत ५०,००० एकड़में नील बोया जाता था। इसमें से ४०,००० एकड़का रकबा, १८,००० एकड़ तावान लेकर और २२,००० एकड़ शरहबेशीके अन्तर्गत मुक्त कर दिया