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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भारतीयोंके आगमनसे समृद्धिका आगमन हुआ। भाव बढ़ गये। अब लोग वस्तुएँ बोने और उपजको मिट्टीके मोल बेच देने-भरसे सन्तुष्ट नहीं रहने लगे। वे कुछ ज्यादा कमा सकते थे। अगर हम १८५९ की ओर देखें तो हमें पता चलेगा कि भारतीय मजदूरोंसे भावी उन्नतिका जो आश्वासन मिला, उससे राजस्वमें तुरन्त वृद्धि हुई, और कुछ ही वर्षोंमें आय चौगुनी हो गई। जो मिस्तरी मजदूरी नहीं पा सकते थे और रोजाना ५ शिलिंग या इससे भी कम कमाते थे, उनकी मजदूरी दूनीसे भी ज्यादा हो गई। इस प्रगतिने नगरसे लेकर समुद्रतक के सब लोगोंको प्रोत्साहन दिया।

नेटालके वर्तमान मुख्य न्यायाधीशके शब्दोंमें ये भारतीय "विश्वस्त और उपयोगी घरेलू नौकर सिद्ध हुए है", फिर भी इनका जीवन-रक्त ही निचोड़ लेनेके बाद इन उद्योगी और अपरिहार्य लोगोंपर कर लगाने के मंसूबे बाँधे जा रहे हैं। दस वर्ष पहले वर्तमान महान्यायवादीका जो अभिप्राय था, वह नीचे दिया जा रहा है। आज उन्होंने ही उस विधेयककी रचना की है, जो लंदनके एक आमूल सुधारवादी पत्रके कथनानसार, "भीषण अनाचार, ब्रिटिश प्रजाका अपमान, अपने निर्माताओंपर कलंक और हमपर लांछनस्वरूप है।"

जहाँतक अवधि पूरी कर लेनेवाले भारतीयोंका सम्बन्ध है, मैं नहीं समझता कि किसी व्यक्तिको, जबतक वह अपराधी न हो और उस अपराधके लिए उसे देश-निकाला न दिया गया हो, दुनियाके किसी भी भागमें जाने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। मैंने इस प्रश्नके बारे में बहुत-कुछ सुना है। मुझसे बार-बार अपना दृष्टिकोण बदलने को कहा गया है, परन्तु मैं वैसा नहीं कर सका। एक आदमी यहाँ लाया जाता है। सिद्धान्ततः रजामंदीसे, व्यवहारतः बहुधा बिना रजामन्दीके लाया जाता है। वह अपने जीवनके सर्वश्रेष्ठ पाँच वर्ष यहाँ खपा देता है। नये सम्बन्ध स्थापित करता है, शायद पुराने सम्बन्धों को भुला देता है। यहाँ अपना घर बसा लेता है। ऐसी हालतमें, मेरे न्याय और अन्यायके विचारसे, उसे वापस नहीं भेजा जा सकता। भारतीयोंसे जो-कुछ काम आप ले सकते हैं, वह लेकर उन्हें चले जानेका आदेश दें, इससे तो यह बहुत अच्छा होगा कि आप उनको यहाँ लाना ही बिलकुल बन्द कर दें।

परन्तु वही चीज, अर्थात् नगण्य मेहनताना लेकर पाँच वर्षतक उपनिवेशकी सेवा करना, जो दस वर्ष पहले भारतीयोंमें सद्गुण-रूप मानी गई थी, आज एक अपराध बन गई है। अगर महान्यायवादीको भारत-सरकार और ब्रिटिश सरकार इजाजत दे दें, तो उस अपराधका दण्ड है—भारतमें निर्वासन। मैं यहाँ कह दें। कि १८९३ में नेटालसे जो एकपक्षीय आयोग[१] भारत आया था, उसके अनुरोधपर

  1. बिन्स-मेसन आयोग; देखिए पृ॰ ६१–६३।