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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

प्रतिनिधि थे। मैंने प्रस्तावकों और समर्थकोंके नामके साथ जो प्रस्ताव तारसे आपको भेजा है, वह बैठक शुरू होनेके पहले ही अच्छी तरह कतर-ब्योंत कर तैयार कर लिया गया था और समय आनेपर आँकड़ोंको व्यवस्थित करके यथास्थान भर दिया गया। भारतीय एक भी उपस्थित नहीं था, न किसीने भारतीयोंकी ओरसे कुछ कहने का साहस ही किया। क्यों, यह कहना कठिन है। क्योंकि शहरके बहुत बड़े बहुजन समाजकी भावना उस एकांगी, स्वार्थमय और संकीर्ण मतके बिलकुल विपरीत है, जो इस प्रश्नपर बोलनेवाले लोगोंने व्यक्त किया है।...मैं यह खयाल किये बगैर नहीं रह सकता कि जिस जातिके लोग परिश्रमी और धीर हैं और अवसर आनेपर अपने गोरे रंगके भाइयोंकी जोड़ीमें ऊँचे पदोंको योग्यता और इज्जतसे निभाने को समर्थ्यका परिचय दे चुके हैं, उस जातिके लोगोंके आगमनसे किसी हानिकी आशंका नहीं होनी चाहिए।

ट्रान्सवाल

अब गैर-ब्रिटिश राज्यों—ट्रान्सवाल और फ्री-स्टेटके बारेमें। १८९४ में ट्रान्सवालमें लगभग २०० व्यापारी थे, जिनकी चुकता पूँजी एक लाख पौंड होगी। इनमें से कोई तीन पेढ़ियाँ इंग्लैंड, डर्बन, पोर्ट एलिज़ाबेथ, भारत तथा अन्य स्थानोंसे सीधे माल मंगाया करती थीं। दुनिया के दूसरे भागोंमें उनकी शाखाएँ थीं, जिनका अस्तित्व मुख्यतः उनके ट्रान्सवालके व्यापारपर अवलम्बित था। बाकी लोग छोटे-छोटे दुकानदार थे। उनकी दूकानें विभिन्न स्थानोंमें थीं। गणराज्यमें लगभग दो हजार फेरीवाले थे, जो माल खरीदकर घूम-घूमकर बेचते थे। यूरोपीय घरों या होटलोंमें काम करनेवाले मजदूरोंकी संख्या लगभग १, ५०० थी। इनमें से लगभग १,००० जोहानिसबर्गमें रहते थे। यह हालत थी, मोटे तौरपर, १८९४ के अन्तमें। अब संख्या बहुत बढ़ गई है। ट्रान्सवालमें भारतीय अचल सम्पत्ति नहीं रख सकते। उन्हें पृथक् बस्तियोंमें रहने का आदेश दिया जा सकता है। उन्हें व्यापारके नये परवाने नहीं दिये जाते। उन्हें ३ पौंडक विशेष पंजीकरण-शुल्क देना पड़ता है। ये सब प्रतिबन्ध गैर-कानूनी हैं, क्योंकि ये लन्दनसमझौतेके विरुद्ध हैं। लन्दन-समझौतेके[१] द्वारा तो सम्राज्ञीकी समस्त प्रजाके अधिकारोंको सुरक्षित कर दिया गया है। परन्तु सम्राज्ञीके भूतपूर्व उपनिवेश-मन्त्रीने समझौतेका उल्लंघन करनेकी अनुमति दे दी थी, इसलिए ट्रान्सवाल उपर्युक्त प्रतिबन्ध लादने में समर्थ हुआ है। १८९४-९५ में इन प्रतिबन्धोंपर पंच-फैसला कराया गया था और पंचने भारतीयोंके खिलाफ निर्णय दिया। अर्थात्, उसने कह दिया कि गणराज्य इन कानूनोंको मंजूर करने का अधिकार रखता है। पंचके निर्णयके खिलाफ ब्रिटिश सरकारको एक प्रार्थना-पत्र[२] भेजा गया था। श्री चेम्बरलेनने अब उसपर अपना निर्णय दे दिया है।

  1. बोअरों और ब्रिटिशके बीच हुए इस समझौतेपर २७ फरवरी, १८८४ को हस्ताक्षर हुए थे। अधिक जानकारी के लिए देखिए खण्ड १, पृ॰ २११ की पाद-टिप्पणी।
  2. देखिए खण्ड १, पृ॰ २०८–२७।