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दक्षिण अफ्रीकावासी ब्रिटिश भारतीयोंकी कष्ट-गाथा

खड़ी हुई मात्र झोंपड़ियोंका देश नहीं है, तो हमारी इतनी बातपर भी कोई विश्वास नहीं करेगा। ब्रिटेनमें लन्दन 'टाइम्स' कांग्रेसकी ब्रिटिश कमेटी[१] तथा श्री भाव-नगरीने[२] और भारतमें 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने हमारी ओरसे जो काम किया है, वह फलीभूत हो ही चुका है। अवश्य ही, भारतीयोंकी स्थितिका प्रश्न समस्त साम्राज्यसे सम्बन्ध रखनेवाला प्रश्न माना गया है और प्रत्येक राजनीतिज्ञने, जिसके पास भी हम गये, हमारे प्रति पूरी सहानुभूति व्यक्त की है। ब्रिटिश लोकसभाके उदार और अनुदार दोनों दलोंके सदस्योंसे हमें सहानुभूतिके पत्र प्राप्त हुए हैं। 'डेली टेलिग्राफ' ने भी हमारा समर्थन किया है। जब पहली बार मताधिकार-विधेयक पास[३] किया गया था और उसका निषेध कर दिये जाने की कुछ चर्चा थी, उस समय नेटालके लोकपरायण व्यक्तियों तथा अखबारोंने कहा था कि विधेयक तबतक बार-बार मंजूर किया जाता रहेगा जबतक कि सम्राज्ञीकी सरकार थक न जाये। उन्होंने "ब्रिटिश प्रजा" विषयक 'ढकोसले' को ठुकरा दिया था और एक अखबारने तो यहाँतक कह डाला था कि अगर विधेयकका निषेध किया गया तो वे रानीकी अधीनताका परित्याग कर देंगे। मन्त्रियोंने खुल्लमखुल्ला घोषित किया था कि यदि विधेयकका निषेध किया गया तो वे देशका शासन करने से इनकार कर देंगे। यह समय था जबकि लन्दन 'टाइम्स' के औपनिवेशिक कामकाजके लेखकने नेटालके विधेयकका समर्थन किया। परन्तु 'थंडरर' ['टाइम्स'] ने इस विषयपर लिखते हुए अपना स्वर खास तौरसे बदल दिया था। उपनिवेश-मन्त्रीका रुख निर्णायक मालूम होता था और ट्रान्सवाल-पंचफैसलासम्बन्धी खरीता ठीक समयपर पहुँच गया था। इससे नेटालके पत्रोंका पूरा स्वर ही बदल गया। उन्होंने विरोध तो किया, परन्तु ब्रिटिश साम्राज्यके अविलग अंगके रूपमें। 'नेटाल एडवर्टाइज़र' ने, जिसने एक बार एशियाई-विरोधी गुट बनाने का प्रस्ताव किया था, २८ फरवरी, १८९५ के एक लेखमें भारतीयोंके प्रश्नपर नीचे लिखे विचार व्यक्त किये। मताधिकार-विधेयकके निषेध और केप कॉलोनीमें हई मेयरोंकी कांग्रेसके प्रस्तावका, जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है, उल्लेख करने के बाद लेखमें कहा गया है :

इसलिए, समस्याको साम्राज्यिकसे लेकर शुद्ध स्थानिकतक सभी दृष्टिकोणोंसे समग्र रूपमें देखा जाये तो वह बहुत बड़ी और जटिल है। परन्तु विभिन्न क्षेत्र इस विषयको केवल स्थानिक दृष्टिकोणसे देखने को कितने भी

  1. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा लंदनमें सन् १९८९ में स्थापित। सर विलियम वेडरबर्न इसके अध्यक्ष थे और दादाभाई नौरोजी एक प्रमुख सदस्य थे।
  2. सर मंचरजी मेरवानजी भावनगरी (१८५१–१९३३); भारतीय पारसी बैरिस्टर, जो इंग्लैंड के निवासी बन गये थे, यूनिवनिस्ट दलकी ओर से दस वर्षतक अध्यक्ष रहें वे भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसकी ब्रिटिश-समितिके एक सदस्य थे।
  3. ७ जुलाई १८९४ को। अफ्रिकावासी भारतीयोंने इस विधेयकके वापस लिए जाने की माँग करते हुए जो प्रर्थनापत्र दिए थे उसके लिए देखिए खण्ड १, पृ॰ १३५–६५।