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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


प्राणियोंको समझा-बुझाकर तथा सेवाके जरिये अहिंसामें विश्वास और इसपर अमल करनेके लिए प्रेरित कर सकूं, करूँ। लेकिन यदि मैं अहिंसाके सिद्धान्तमें पूर्णतः विश्वास न करनेवाले किसी व्यक्तिको या प्रवृत्तिमें, जहाँतक उसका उद्देश्य न्यायोचित हैं, यदि सहायता न दूं तो मैं अपनी आस्थाके साथ विश्वासघात करूँगा। यह जानकर भी कि मुसलमानोंकी माँग उचित है यदि इस्लामकी इज्जतके खिलाफ साजिश करनेवालोंके विरुद्ध लड़नेमें मुसलमानोंकी सहायता बिलकुल अहिंसक ढंगसे न करूँ तो वह मेरे लिए हिंसाको बढ़ावा देना ही होगा। जहाँ दोनों ही पक्ष हिंसामें विश्वास करते हैं, उन मामलोंमें भी न्याय अक्सर किसी एक पक्षकी ओर होता है। डाकेजनी का शिकार बननेवाले आदमीके पक्षमें न्याय होता है, चाहे वह हिंसाके सहारे ही अपना माल लौटा लेनेकी कोशिश कर रहा हो। हां, अगर उस पीड़ित व्यक्तिको उसका माल लौटा लेनेके लिए खुले लड़ाई-झगड़ेके बजाय सत्याग्रहके तरीकों, अर्थात् प्रेम या आत्मिक बलका सहारा लेनेके लिए तैयार किया जा सके तो वह अहिंसाकी एक बड़ी जीत मानी जायेगी।

मैंने यहाँ जितनी मर्यादाएँ बतलाई हैं, उनको देखते हुए श्री जकरिया कह सकते हैं कि मैं अहिंसा के सिद्धान्तका पुजारी नहीं हूँ; मेरा वैसा दावा गलत है। इसपर मैं सिर्फ यही कहूँगा कि जीवन एक बड़ी पेचीदा-सी चीज है और सत्य तथा अहिंसा हमारे सामने ऐसी कई समस्याएं पेश करते हैं जिनका बहुधा कोई विश्लेषण नहीं किया जा सकता और न जिनपर कोई फतवा दिया जा सकता है। सत्य और उसपर आचरण करनेके उचित साधनों ― अर्थात् सत्याग्रह और आत्मिक बल ― की समझ आदमी अर्सेतक सतत प्रयत्न और मन-ही-मन प्रार्थना करके ही अपने अन्दर पैदा कर पाता है। मैं तो अपने मित्रोंको इतना ही आश्वस्त कर सकता हूँ कि मैं सत्यका मार्ग टटोल रहा हूँ और इसमें अपनी ओरसे कोई कसर नहीं होने देता, और सत्यान्वेषियोंके इस बहुत ही थकानेवाले मगर बड़े ही सुन्दर मार्गपर मेरे दो ही अत्यन्त विश्वस्त साथी हैं― विनम्रतापूर्ण सतत प्रयत्न और मन-ही-मन भगवान् से प्रार्थना। यही दोनों सदा मेरे साथ रहते हैं।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १-६-१९२१