वर्णन नहीं कर रहा हूँ। मैं जिस आत्मत्यागकी माँग कर रहा हूँ उसमें भिखारीपनको अवकाश ही नहीं है। यह आत्मत्याग छिपानेसे छिप नहीं सकता और जबतक देशमें ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हो जाती तबतक स्वराज्यका विचार करना निरर्थक है। जब कुछ एक स्त्री-पुरुष सर्वस्व होमनेके लिए तैयार होंगे तभी स्वराज्यकी सेना उठ खड़ी होगी, तभी उसके लिए सामान्य त्याग करनेवाले निकलेंगे और उनसे स्वराज्यकी शोभा होगी।
यह समय ऐसे त्यागका है। [गुजरात] प्रान्तीय समितिने स्वयंसेवकोंकी माँग की है। जिनके पास शक्ति नहीं है, जिन्हें और कोई धन्धा नहीं सूझता भले ही वे लोग सरकार के पास अर्जी भेजें लेकिन मुझे ऐसे लोगोंकी तलाश है जो अपना सर्वस्व अर्पण करें। देश उन्हें जितना दे उतनेमें अपना निर्वाह करें और उसमें गौरव मानें। जिन्हें और कुछ नहीं सूझता, यदि ऐसे लोग स्वराज्यके सेवक बनें तो उनके द्वारा हमें धर्मके इस महायुद्धमें विजय मिलनेवाली नहीं है। इससे मैं उम्मीद करता हूँ कि जिन भाइयोंने त्याग किया है उनकी छूत और लोगोंको भी लगेगी और मुझे गुजरातमें किये गये त्यागका वर्णन करनेके बदले गुजरातके त्यागका वर्णन करनेका शुभ प्रसंग प्राप्त होगा।
नवजीवन, २६-६-१९२१
१३०. माधुरी और पुष्पा
माधुरी और पुष्पा दोनों छः या सात वर्षकी लड़कियाँ है। तिलक स्वराज्य-कोषमें दान लेने के लोभसे में एक परिवारमें पहुँच गया।
परिवार के स्नेही स्त्री-पुरुषोंसे मैं घिरा हुआ बैठा था। इस बीच माधुरी धीरे-धीरे वहाँ आ पहुँची। मैंने उसे पास बुलाया। दुर्भाग्यसे मुझे कुर्सीपर बिठाया गया था। इस परिवारमें मेज कुर्सीका इस्तेमाल एक सामान्य बात थी। कुर्सीपर बैठा हुआ मैं माधुरीको गोदमें तो कैसे ले सकता था? मैंने उसे अपने निकट खींच लिया और उसके सिरको अपनी गोदमें रख लिया। माधुरी धीमे स्वरमें बोली:
“मैंने आपके साथ छल किया है।”
“मुझे तो बड़े लोग छलते हैं, बच्चे कभी नहीं छलते। तू मेरे साथ कदापि छल नहीं कर सकती।”
इस तरह मैंने हँसकर उत्तर दिया। मैं माधुरीकी मुखमुद्राको ध्यान से देख रहा था।”
“मैंने सचमुच आपको छला है, मैंने आपको सिर्फ डेढ़ रुपया ही दिया,” माधुरी-ने हिम्मत करके उत्तर दिया।
“तब तो मैं सचमुच छला गया। तू तो इतने सारे गहने पहने हुए है और मुझे केवल डेढ़ रुपया ही दिया?”