रहा है, लेकिन यही बात दूसरे बहुतसे बुरे रिवाजोंके साथ भी लागू होती है। यह सोचकर ही मुझे शर्म आती है कि लड़कियोंको लगभग वेश्यावृत्तिके लिए अर्पित कर देना[१] हिन्दूधर्मका एक अंग था। फिर भी, भारतके कई हिस्सोंमें यह आजतक प्रचलित है। मैं कालीके आगे बकरेकी बलि देना अधर्म मानता हूँ और इसे हिन्दू धर्मका अंग नहीं समझता। हिन्दूधर्म अनेक युगोंका विकास फल है। हिन्दुस्तानके लोगोंके धर्मको हिन्दू धर्मकी संज्ञा ही विदेशियोंने दी। इसमें सन्देह नहीं कि किसी समय धर्मके नामपर पशु-बलि दी जाती थी। लेकिन यह कोई धर्म नहीं है, और हिन्दू धर्म तो नहीं ही है। और इसी तरह मुझे यह भी लगता है कि जब गोरक्षा हिन्दुओंका धर्म बन गई तब गोमांस खानेवालोंका समाजसे बहिष्कार कर दिया गया। इसलिए निश्चय ही समाजमें भारी संघर्ष हुआ होगा। यह सामाजिक बहिष्कार सिर्फ इस धार्मिक बन्धनको न माननेवालोंपर ही नहीं लागू किया गया, बल्कि उनके पापोंका फल उनकी सन्तानोंको भी दिया गया। जो रिवाज आरंभ में शायद अच्छे उद्देश्योंसे शुरू किया गया वह बादमें कठौर परिपाटीके रूपमें बदल गया और हमारे धर्मग्रंथोंमें भी कुछ ऐसे श्लोक जोड़ दिये गये जिनसे यह परिपाटी सर्वथा अनुचित और अन्यायपूर्ण ढंगसे स्थायी बन गई। मेरा यह अनुमान सही हो या न हो, अस्पृश्यता बुद्धिके तथा करुणा, दया या प्रेमको भावनाके विरुद्ध है। जिस धर्मने गायकी पूजाका प्रवर्तन किया, वह मनुष्य के निर्दय और अमानवीय बहिष्कारका समर्थन कैसे कर सकता है, उसका औचित्य कैसे ठहरा सकता है? और भले ही कोई मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दे, मैं दलित वर्गोंका साथ नहीं छोड़ सकता। जबतक हिन्दू अपने उदात्त धर्मको अस्पृश्यताके कलंकसे दूषित रखेंगे तबतक वे कभी भी स्वतंत्रताके पात्र नहीं होंगे और न उसे प्राप्त कर सकेंगे। और चूँकि मैं हिन्दूधर्मको अपने प्राणोंसे भी अधिक प्यार करता हूँ, इसलिए यह कलंक सहना मेरे लिए असम्भव हो गया है। अगर हम अपनी जातिके पाँचवें हिस्सेको हमसे बराबरीके दर्जेपर मिलने-जुलनेके अधिकारसे वंचित करते हैं तो उसका मतलब है, हम ईश्वरकी सत्ताको अस्वीकार करते हैं।
यंग इंडिया, ६-१०-१९२१
- ↑ देवदासी प्रथा