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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

इस प्रकारकी अपराधितासे, जिसे कानूनका रूप दे दिया गया हो, लोगोंको कैसे निपटना चाहिए? क्या वे दीनतासे उसे सहन करते रहें या स्वाभिमानी मनुष्योंकी तरह आज्ञाओंका उल्लंघन कर सत्ताकी उपेक्षा करें? यदि इस तरहकी बातें, जैसी कि डा० गोकुलचन्द नारंगने बताई हैं, लाहौर-जैसे शहरमें हो सकती हैं तो बेचारे गाँववालों की क्या दुर्दशा होती होगी। यदि अखबार पढ़नेवाले लोग ग्राम-जीवनसे बिलकुल अनभिज्ञ न होते और गाँववालों की कठिनाइयोंके प्रति तटस्थ न होते, तो कानून और व्यवस्थाकी यह जड़पूजा जिसके नामपर अकथनीय आतंक पैदा किया जा रहा है, बहुत पहले खत्म हो गई होती। सविनय अवज्ञा आन्दोलनका उद्देश्य सच्चा कानून और सच्ची व्यवस्था विकसित करना है, जिसके पालनको लोग अपना विशेषाधिकार और कर्त्तव्य समझेंगे।

बंगालमें

बंगालमें भी हालत कुछ बेहतर नहीं है। ‘कानून और व्यवस्था’ के नामपर सभाएँ जबरदस्ती भंग की जा रही हैं। ‘स्वतन्त्र’ के सम्पादक पं० अम्बिकाप्रसाद बाजपेयी और ‘भारतमित्र’ के सम्पादक पं० लक्ष्मण नारायण गर्देको भी गिरफ्तारीका सम्मान प्राप्त हो गया है। देशबन्धु चित्तरंजन दास और मौलाना अबुल कलाम आजादका मुकदमा खत्म होने में ही नहीं आ रहा। खबर मिली है कि बारीसाल जेलमें छ: राजनीतिक कैदियोंको, अनुशासन भंग करनेके तथाकथित अपराधमें अकेली कोठरियों- में बन्द कर दिया गया है। कहा जाता है कि उन्हें बेड़ियाँ पहनानेका हुक्म दिया गया है। फीरोजपुर सब-डिवीजनल कमेटीके प्रधान नरेन बाबूने शिकायत की है कि कैदियोंके ‘कान खींचे’ गये थे। ‘पत्रिका’ की रिपोर्ट है कि खान बहादुर मौलवी नेमायतउद्दीनने, जो कैदियोंसे मिले थे, कहा है कि अकेली कोठरियोंमें बन्द कैदियोंको अगर उन कोठरियोंसे निकाला नहीं गया तो उनके पागल हो जानेका डर है। निस्सन्देह, इस तरहकी अमानुषिकताका भी ‘कानून और व्यवस्था’ के हितमें समर्थन किया जायेगा। सर होर्मसजी वाडिया तक ऐसे ‘कानून और व्यवस्था’ का विरोध कर सकते हैं।

ईश्वरको धन्यवाद है कि इन सब परीक्षाओंके बावजूद, जिनसे बंगाल आज गुजर रहा है, बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस कमेटीके प्रधान और खिलाफत समितिके उपप्रधान, बाबू हरदयाल नाग निम्नलिखित घोषणा पत्र जारी कर सके हैं:

कलकत्तेके नागरिकोंका कलको सार्वजनिक सभाओंमें जो शान्त और धीर व्यवहार रहा उसके लिए मैं उन्हें फिर बधाई देता हूँ। सविनय अवज्ञा अभी अपनी प्रयोगात्मक स्थितिमें है। इसकी सफलता पूर्णतया अहिंसाकी सफलतापर निर्भर है। जैसा कि स्वाभाविक था, कुछ भीड़ इकट्ठी हो गई। परन्तु यह देखकर बहुत ही सन्तोष हुआ कि पुलिसके डंडे चलानेपर भी भीड़ने जरा-भर बदलेका कोई रुख नहीं दिखलाया। पुलिसके हस्तक्षेपके बावजूद हमारे राष्ट्रीय कार्यकर्त्ताओंने सभाओंकी कार्रवाई शान्ति और निर्भीकतासे जारी रखी। वस्तुतः