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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय

सज्जन रहेंगे। मुझे विश्वास है कि हमारे पीछे और लोग भी टुकड़ियाँ बनाकर आयेंगे। देखें, पूना इस विषयमें क्या कर दिखाता है।

निश्चयके अनुसार वे लोग वहाँ गये और गिरफ्तार भी कर लिये गये। पर सिर्फ नाम लिखकर उन्हें छोड़ दिया गया। उसके पश्चात् एकके-बाद-एक टुकड़ी वहाँ जा रही है और उसी तरह नाम लिखकर छोड़ दी जाती है। निश्चय ही महाराष्ट्र कष्ट सहनमें कभी पीछे नहीं रह सकता। महाराष्ट्रमें जैसे साहसी और कठिन कार्यकर्त्ता हैं वैसे सारे भारतमें नहीं हैं। देश-भरमें चारों ओर पहली पंक्तिके नेता बड़ेसे-बड़े जोखिम सिरपर ले रहे हैं। यह एक उल्लेखनीय बात है। श्री केलकर तथा उनके साथियोंको तो जेलका सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ; परन्तु अजमेरके लोग उनसे अच्छे रहे। वहाँ तो बस मनाहीका हुक्म निकलते ही कार्यकर्त्ता दौड़ पड़े। चुनौतीका स्वागत किया और अपना 'धार्मिक अधिकार' समझकर धरना देने पहुँच गये। पण्डित चाँदकरण शारदा लिखते हैं:

शराबकी तमाम दुकानोंपर स्वराज्य-सेनाके स्वयंसेवक तैनात कर दिये गये। सरकारकी तरफसे भी हर दूकानपर पुलिस के जवान तथा घुड़सवार तैनात किये गये। उन्हें स्वयंसेवकोंको गिरफ्तार कर लेनेका हुक्म भी दे दिया गया था। एक दलके पकड़े जाते ही दूसरा दल वहाँ जा पहुँचा। पुलिसने सिर्फ १७ स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया। उनपर तुर्त-फुर्त मामला चलाकर, उन्हें पौने पाँच महीने की सख्त कैदको सजा दी गई।

उन्होंने अपनी सफाई नहीं दी। इसके बाद अजमेरसे गिरफ्तारीकी खबर नहीं आई। जहाँ बिना दंगे-फसादके तथा दुकानदार और शराब पीनेवालों के प्रति दुर्भाव न रखते हुए, धरना दिया जा सकता हो वहाँ तो वह हमारा नैतिक कर्त्तव्य ही है। शराबखोरी बन्द करने में इसने जितनी सहायता दी है, उसको कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। अभी उस दिन करमसदके[१] ईसाइयों तथा हिन्दू ढेढ़ोंने मुझसे बड़ी कृतज्ञताके साथ कहा कि आपके धरनेकी बदौलत हमारी शराब पीनेकी आदत छूट गई। बम्बईने धरना देनेका अपना हक कुछ समयके लिए खो दिया है। उसने १७ तारीखको पारसियोंकी शराब की दुकानें बुरी तरह जला और तोड़-फोड़ डालीं और ईसाइयों और पारसियोंके साथ बड़ी बदसलूकी की। तीन रोजतक बराबर यही हिंसा-काण्ड होता रहा। उसीका यह फल है। मैं आशा करता हूँ कि जहाँ-कहीं धरना देनेकी तजवीज की गई हो वहाँ यह काम ऐसे भाई-बहनोंके सिपुर्द किया गया होगा जिनके चालचलनपर कोई अँगुली नहीं उठा सकता तथा वे अपना काम बिलकुल मित्र भावसे करते होंगे। हम पशुबलका प्रयोग करके लोगोंको नीतिवान बनाना नहीं चाहते।

महाराष्ट्रको पार्टीका अपमान

श्री केलकरके पत्रके सम्बन्धमें यह कहना बहुत जरूरी है कि जो नेता अकोला गये थे उनकी जिस प्रकारकी आलोचना की गई है वह बहुत अनुचित थी। श्री केलकरके जिस पत्रसे मैंने उद्धरण दिये हैं, उसमें कहा गया है:

  1. गांधीजी १७ दिसम्बरको करमसदमें थे।