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हिन्दू-मुस्लिम एकता

तो वे गायकी रक्षा करें; फिर हिन्दू उनसे अच्छा सलूक करें या बुरा। यदि हिन्दू मुसलमानोंको अस्पृश्य मानते हों तो यह पाप है। मुसलमान चाहे गोवध करें या न करें, परन्तु हिन्दुओंको उन्हें अछूत नहीं मानना चाहिए अर्थात् स्पर्श आदिके बारेमें चारों वर्ण एक-दूसरेके साथ जैसा व्यवहार रखते हैं, हिन्दुओंको वैसा ही व्यवहार मुसलमानोंके साथ रखना चाहिए। इस बातको मैं तो स्वयंसिद्ध मानता हूँ। यदि हिन्दू धर्म मुसलमानोंके या अन्य धर्मियोंके तिरस्कारकी शिक्षा देता हो तो उसका नाश ही होगा। इसलिए किसी तरहका सौदा किये बिना दोनोंको अपना घर साफ करना चाहिए। गायकी रक्षाके लिए मुसलमानोंसे दुश्मनी करना गायको मारनेका रास्ता है और दुहरा पाप है। यदि विधर्मी लोग गोवध करें तो इससे हिन्दू धर्मका लोप न होगा। हिन्दू गायको न मारें, यह उनका धर्म है। परन्तु क्या विधर्मियोंसे जबरदस्ती करके गायको छीन लेना उनका धर्म हो सकता है? हिन्दू लोग भारतमें स्वराज्य चाहते हैं, हिन्दू-राज्य नहीं। हिन्दू-राज्यमें भी यदि सहिष्णुताका स्थान हो तो मुसलमान और ईसाई दोनोंके लिए जगह होनी चाहिए। यदि उसमें दोनों जातियाँ समझ-बूझकर अपनी खुशीसे गोकुशी बन्द करें तो ही हिन्दू-धर्मकी शोभा मानी जायेगी। परन्तु मैं तो हिन्दुओंके लिए हिन्दू-राज्यकी इच्छा करना भी देशद्रोह मानता हूँ।

अब रहा बाजेका झगड़ा। बाजेका झगड़ा दिन-पर-दिन बढ़ता दिखाई देता है। एक पत्रमें जो मुझे सूरतमें मिला था यह कहा गया है कि हिन्दू-धर्ममें बाजा बजाना अनिवार्य नहीं है। इसलिए हिन्दुओंको चाहिए कि वे मुसलमानोंकी भावनाको आघात न पहुँचाने के खयालसे मसजिदोंके सामने बाजे बजाना बन्द कर दें। मैं चाहता हूँ कि यह बाजेकी बात उतनी ही आसान होती जितनी कि पत्र-लेखक बताते हैं। परन्तु हकीकत इसके खिलाफ है। हिन्दू-धर्मकी कोई भी विधि ऐसी नहीं है जो बिना बाजा बजाये हो सकती है। कितनी ही विधियाँ तो ऐसी हैं जिनमें शुरूसे अखीर तक बाजा बजाना जरूरी है। हाँ, इसमें भी हिन्दुओंको इतनी चिन्ता जरूर रखनी चाहिए कि मुसलमानोंका दिल न दुखने पाये। बाजा धीमे बजाया जाये, कम बजाया जाये तथा यह सब लेन-देनकी नीतिके अनुसार हो सकता है और होना चाहिए। कितने ही मुसलमानोंके साथ बातें करनेसे मुझे ऐसा मालूम होता है कि इस्लाममें ऐसा कोई फरमान नहीं है जिससे दूसरोंके बाजेको बन्द कराना लाजिमी हो। इसलिए मसजिदके सामने विधर्मियोंके बाजे बजानेसे इस्लामको धक्का नहीं पहुँचता। अत: यह बाजेका सवाल झगड़ेका मूल नहीं होना चाहिए।

ऐसा होते हुए भी कितनी ही जगह मुसलमान भाई हिन्दुओंके बाजे जबरदस्ती बन्द कराना चाहते हैं। यह स्थिति असह्य है। जो बात विनयसे कराई जा सकती है वह जोर-जबरदस्ती से नहीं कराई जा सकती। विनयके सामने झुकना धर्म है, जोर-जबरदस्ती के सामने झुकना अधर्म है। यदि हिन्दू मारके डरसे बाजे बजाना छोड़ें तो वे हिन्दू न रहेंगे। इस सम्बन्धमें सामान्य नियम इतना ही बताया जा सकता है कि जहाँ हिन्दुओंने समझ-बूझकर बहुत समयसे मसजिदके सामने बाजे बन्द करनेका रिवाज रखा है वहाँ उन्हें उसका पालन अवश्य करना चाहिए। जहाँ वे हमेशा बाजे बजाते

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