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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

...क्या हम अपने विकासके सभी नये क्षेत्रोंमें भारतकी विश्वैक्यकी भावनाका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? या हम फिर पश्चिमकी कुछ अत्यन्त प्रतिगामी विशेषताओंकी नकल-भर कर रहे हैं? क्या हमारी स्वदेशीकी कल्पना दूसरोंके प्रति शत्रुभाव और द्वेषभावनासे धुँधली पड़ती जा रही है?...

सबसे बड़ी कसौटी अहिंसा है...

चूँकि मैं हमेशा यह महसूस करता रहा हूँ कि असहयोग-जैसे खतरनाक नामके बावजूद हमारे राष्ट्रीय आन्दोलनके पीछे बुनियादी तौरपर अहिंसा या प्रेमकी भावना रही है, इसीलिए अच्छी-बुरी सभी परिस्थितियोंमें मैं आन्दोलनके साथ रहा हूँ और जब वातावरणमें हिंसाकी भावना दिखाई पड़ती थी, तब भी मैं आन्दोलनका समर्थन और बचाव करता रहा हूँ।...

जबतक भारतीय स्वदेशी आन्दोलन मुख्यतः खादी अथवा उन वस्तुओंतक सीमित रहता है जो भारतमें बन सकती हैं और बननी चाहिए तबतक उसमें अशुद्धता या जाति-द्वेष आनेका कोई भय नहीं है। यह बहिष्कारात्मक नहीं है बल्कि रक्षात्मक है। वह अंग्रेजों अथवा अन्य विदेशियोंके विरुद्ध नहीं है बल्कि भारतीयोंके हितकी दृष्टिसे आवश्यक है। जैसे माँ दुनियाके प्रति किसी तरहका विरोध भाव रखे बिना उससे अपने बच्चोंकी रक्षा करती है वैसे ही भारतको अपने प्राथमिक उद्योगोंकी रक्षा करनी चाहिए। उग्र राष्ट्रवाद, जो साम्राज्यवादके नामसे प्रसिद्ध है, एक अभिशाप है, किन्तु अहिंसात्मक राष्ट्रवाद समूह-जीवन अथवा सभ्य जीवनकी एक आवश्यक शर्त है।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २७-११-१९२४

३१५. पत्र: छगनलाल गांधीको[१]

[ २७ नवम्बर, १९२४ के पश्चात् ][२]

इसकी पहुँच मथुरादासको भेज देना। दाभोलकरका पैसा किस कामके लिए है? हमें भी इन दोनों रकमोंको तथा हमारे पास अमानतके रूपमें पड़ी हुई ऐसी ही अन्य रकमोंको, यदि उन्हें ब्याजपर न चढ़ाया हो तो अब चढ़ा देना चाहिए।

बापू

गुजराती पत्र (एस० एन० ११७४३) की फोटो-नकलसे।

  1. और
  2. यह पत्र मथुरादास त्रिकमजीके २७-११-१९२४ के पत्रके जवाबमें लिखा गया था। मथुरादास त्रिक्रमजीने अपने इस पत्रके साथ, गांधीजीके जेल जानेके बादसे अपने पास पड़ी हुई दो रकमोंके ब्याजका रु० १५३-०-८ पा० का एक चेक भी भेजा था।