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मेरी पंजाब-यात्रा

विषयोंपर प्रस्ताव पास करायें जिनपर लोग एकमत हैं। इसी तरह जो लोग अकाल-पीड़ित स्थानोंमें सहायता पहुँचानेकी व्यवस्था करनेमें लगे हों, उन्हें भी ऐसे कामके लिए बुलाना उचित न होगा। स्वयं पण्डितजी भी प्रयागमें अपने शान्ति-दलको संगठित करनेके अधिक उपयोगी काममें संलग्न हैं और यदि वे सच्चे हिन्दू-मुस्लिम संगठन कायम करनेमें सफल हों तो यह देशके लिए प्रथम श्रेणीकी सेवा होगी। बीचवालोंके द्वारा नहीं, बल्कि जड़से ही काम शुरू करनेका उनका जो संकल्प है, उसके फलस्वरूप हिन्दू-मुस्लिम जनतामें सद्भाव फैले बिना नहीं रह सकता।

मेरा असली काम

यह सम्मेलन मेरे लिए एक आनुषंगिक वस्तु थी। मेरा असली काम तो हिन्दुओं और मुसलमानोंके प्रतिनिधियोंसे मिलना ही था। इसलिए अमृतसरकी खिलाफत परिषद्में उपस्थित जनतासे सम्मेलनके दूसरे दिनकी बैठकको, उस दिनके तीसरे पहरतक मुल्तवी करनेका अनुरोध करनेमें मुझे कोई हिचकिचाहट न हुई। मेरा ऐसा करनेका तात्पर्य यह था कि ८ तारीखको सवेरे ये लोग प्रतिनिधियोंकी बा-जाब्ता सभामें योग दे सकें। मुझे यह देखकर बड़ी खुशी हुई कि उपस्थित सज्जनोंने मेरी यह राय मान ली। मौलाना जफर अली खाँ (सभापति), डाक्टर, किचलू तथा अन्य सज्जन बड़ी असुविधा उठाकर भी उस सभाके लिए लाहौर आये।

परिणाम

पाठकको यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि यह सभा खास इसी उद्देश्यसे की गई थी कि हिन्दुओं और मुसलमानोंकी आपसी तनातनीको रोकने और इन दोनों जातियोंके बीच असली अमन कायम करनेके उपायोंपर विचार किया जाये। बाहरसे आनेवाले मुसलमानोंमें हकीम साहब अजमलखाँ, अली बन्धु और डाक्टर अन्सारी, तथा हिन्दुओंमें पण्डित मदन मोहन मालवीय उपस्थित थे। चर्चा मुख्यतः झगड़ोंके राजनीतिक कारणोंके सम्बन्धमें हुई। क्योंकि पंजाबके पढ़े-लिखे लोगोंके बीच इस मनोमालिन्यके सब नहीं तो प्रधान कारण राजनीतिक ही मालूम होते हैं। लालाजीने बड़े दुःखके साथ मुझसे कहा कि पहले जहाँ शिक्षित हिन्दुओं और मुसलमानोंमें सामाजिक सद्भाव था वहाँ अब मन-मुटाव बढ़ता जा रहा है। इसलिए बैठकमें इस बात पर विचार किया गया कि क्या लखनऊमें हुए समझौतेमें कुछ संशोधन किया जाना चाहिए। पंजाबके मुसलमानोंका खयाल है कि लखनऊवाले समझौतेको आरम्भमें हो गई एक बड़ी भूल न माना जाये तो भी अब वह हमारे लिए नाकाफी हो गया है। उनका कहना है कि जबतक साम्प्रदायिक द्वेष बढ़ रहा है और पारस्परिक अविश्वास मौजूद है तबतक:-

१. साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व रखा जाये और उसका आधार जनसंख्या हो। निर्वाचक मण्डल कमसे कम सबका एक ही या जरूरत हो तो अलग-अलग भी रहे।

वे लोग इस बातपर एकमत मालूम पड़ते थे कि पृथक् निर्वाचनकी बात छोटी-छोटी जातियोंके चाहनेपर ही दाखिल की जायें।