बाद खादी पहनानेका है। "अनिवार्य" शब्दकी पाबन्दी शिक्षकपर है। वह शिक्षकको उसके कर्त्तव्य की याद दिलाता है। इस तरह "धीरज रखना" मूल उद्देश्यके लिए कम सहायक है या ज्यादा, यह सवाल ही खड़ा नहीं होता। धीरज तो शिक्षकका गुण है ही या होना ही चाहिए।
३. खादीको अनिवार्य बनाना क्या इस बातका ढ़िंढोरा नहीं है कि लोगोंने उसे स्वेच्छासे नहीं अपनाया है? ...
इस शंकाका जवाब ऊपर दे दिया गया है।
४. क्या अनिवार्य खादीके नियमसे पाठशालामें प्रवेश पाने के लिए ही खादी पहननेवाले ढोंगियोंकी तादाद नहीं बढ़ेगी?...
अगर ढोंगका डर बच्चोंके बारेमें हो तो उसे मैं नहीं मानता। बच्चे ढोंग नहीं कर सकते। शिक्षकके बारेमें ऐसा अन्देशा हो सकता है। लेकिन जहाँ थोड़ा बहुत नियम-पालन होता है, वहाँ ढोंग तो आ ही जाता है। उसका उपाय वातावरणको शुद्ध बनाना है, नियमोंको आसान बनाना नहीं।
५....अनिवार्य खादीके खयालसे तो राष्ट्रीय शालाएँ उनके लिए हैं जिन्होंने स्वराज्यकी शर्ते पूरी की हों; तो फिर जिन्हें अभी उसको शिक्षा देनी है, उनके लिए कौन-सी पाठशाला है?
राष्ट्रीय स्कूलोंके अस्तित्वके दो कारण हैं: एक तो जिनपर राष्ट्रीयताका रंग चढ़ा है उनके लिए सुविधाएँ प्रदान करना; और दूसरा, जिनपर रंग नहीं चढ़ा उनके लिए खुद उदाहरण प्रस्तुत कर उन्हें प्रभावित करना। जिनपर रंग नहीं चढ़ा, उनके लिए नियमोंको आसान बनाकर उन्हें लुभानेका हमारा उद्देश्य नहीं है। जैसे-जैसे राष्ट्रीय स्कूलोंके शिक्षकों और लड़कोंके चरित्रका विकास होगा और लोग उन्हें देखेंगे वैसे-वैसे वे इन शालाओंमें प्रवेश पाने के लिए उत्सुक हो उठेंगे।
६. नियम जालके समान बन जाते हैं।...
नियमोंका जाल बनना या न बनना, नियम चलानेवालेपर निर्भर है। उनका सहज पालन कराना भी नियामकपर निर्भर है। प्राथमिक पाठशालाएँ कोमल डालियाँ हैं। उन्हें जिधर मोड़िये उधर ही मुड़ जायेंगी। हमारे हाथसे वे सीधी दिशामें मुड़नी चाहिए।