त्रीकमलालका निश्चय था कि यदि तुलसीके पत्र देने मात्रसे योग्य कन्या मिलेगी तो ही वे विवाह करेंगे। उनका यह निश्चय पूरा हुआ। विवाह अन्त्यजोंके मुहल्लेमें कन्याके हाथसे अन्त्यज बालकोंको खादीके वस्त्र वितरित कराने के बाद समाप्त हो गया। इस विवाहमें भी बाजों और गालियों आदिका बिलकुल बहिष्कार रहा। मैं काठियावाड़के महाजनोंसे प्रार्थना करता हूँ कि वे विवाहोंमें इस प्रकारकी सादगीसे रोष न करें; बल्कि वे इसे स्तुत्य मानकर उसका प्रचार करें। अब बड़ी-बड़ी दावतोंका जमाना चला गया है, उन्हें ऐसा समझना चाहिए । प्रत्येक युगमें आचार-व्यवहारमें थोड़ा-बहुत अन्तर होता ही है। जैसे जाड़े के कपड़े गर्मी में निरुपयोगी हो जाते हैं उसी प्रकार प्राय: एक युगकी प्रथाएँ दूसरेमें निरुपयोगी और हानिकर हो जाती हैं।
नवजीवन, २९-३-१९२५
२४१. पत्र: वसुमती पण्डितको
चैत्र सुदी ६ [३० मार्च, १९२५] [१]
तुम्हारा पत्र मिला। दक्षिणसे सूरतके पतेपर मैंने तुम्हें जो पत्र लिखा था, लगता है वह तुम्हें मिला नहीं है। इस यात्रामें मैं तुम्हें भूला नहीं हूँ। कई दृश्योंको देखते समय और कन्याकुमारीके दर्शनके समय तो मुझे तुम्हारी बहुत याद आई।
मेरी तबीयत ठीक है। काठियावाड़में मैं आठेक दिन ठहरूँगा। अप्रैलमें मुझे एकदो दिनके लिए बम्बई जाना होगा।
बापूके आशीर्वाद
मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ५८८) से।
सौजन्य: वसुमती पण्डित
१. गांधीजी २५-३-१९२५ को कन्याकुमारी गये थे। उन्होंने १-४-१९२५ से ८-४-१९२५ तक काठियावाड़का दौरा किया और ११-४-१९२५ से १४-४-१९२५ तक वे बम्बई रहे।
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