३१. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको
दिल्ली
माघ सुदी ८ [रविवार १ फरवरी, १९२५] [१]
आपका पत्र मीला है। मैं आपको अच्छा चरखा भेजनेकी कोशीष कर रहा हुं। चरखेके साथ साथ रामनाम खूब चल सकता है। दो ऐसे विद्वान सखस हैं जिन्होंने चरखेके साथ रामनाम जपा और दीवानपनमें से बचे। आखरमें तो जैसी जिसकी भावना वैसा तिसको होय।
आपका,
मोहनदास गांधी
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल पत्र (सी० डब्ल्यू ६१०३) से।
सौजन्य: घनश्यामदास बिड़ला
३२. कुछ उचित प्रश्न
कुछ दिन हुए मैंने अस्पृश्यताके बारेमें बंगालसे प्राप्त एक विचारपूर्ण पत्र [२] छापा था। उसके लेखक आज भी उस विषयमें बड़ी लगनसे खोज कर रहे हैं। अब मद्राससे भी एक सज्जनने वैसी ही जानकारी प्राप्त करनेके लिए कुछ प्रश्न पूछे हैं। इस जटिल प्रश्नका हल निकालनेके लिए कट्टर हिन्दू लोग भी प्रवृत्त हुए हैं। यह बड़ा शुभ चिह्न है। इसमें कोई शक नहीं कि प्रश्न पूछनेवालेको सच्ची उत्कंठा है। प्रश्न वैसे ही हैं जैसे कि इस सिलसिलेमें आमतौरपर लोग पूछते हैं; इतनी बड़ी सूचीमें एक भी प्रश्न ऐसा नहीं है जो देशके मेरे विभिन्न दौरोंके समय मुझसे पूछा न गया हो। इन सज्जनके प्रश्नोंको हल करनेका प्रयत्न इसी आशासे करता हूँ कि मेरे जवाबसे पत्र लिखनेवाले सज्जनको, जो एक कार्यकर्त्ता और सच्चे शोधक होनेका दावा करते हैं, और दूसरे कार्यकत्ताओं और शोधकोंको रास्ता दिखाई देने लगे।
१. छुआछूतको दूर करने के लिए क्या-क्या अमली उपाय करने चाहिए?
(क) अस्पृश्योंके लिए भी सार्वजनिक शालाएँ, मन्दिर, रास्ते,---जो अब्राह्मणोंके लिए खुले हैं और जो किसी खास जातिके लिए नहीं होते--खोल दिये जायें।