सेवाकी जरूरत नहीं है। इस बीच इंग्लैंडसे वहाँ एक ऐसे सज्जन पधारे जिन्होंने चर्च ऑफ इंग्लैंडके मातहत भारतमें बीस वर्षतक ईसाई मिशनके डॉक्टरकी हैसियतसे काम किया था । उनका नाम है कैनन बूथ । आजकल वे सेंट जॉनके डीन हैं। उन्हें यह देखकर आनन्द हुआ कि भारतीय लड़ाईमें साम्राज्यकी सेवा करनेके लिए तैयार हैं। उन्होंने उन्हें शुश्रूषा-दलके नायकोंके रूपमें प्रशिक्षण देनेका प्रस्ताव किया। और भारतीय स्वयंसेवक डॉक्टर बूथसे कई हफ्तोंतक घायलोंकी प्राथमिक परिचर्याका पाठ पढ़ते रहे। इस बीच जनरल बुलरकी फौजके मुख्य चिकित्साधिकारी कर्नल गालवेको यह खयाल हुआ कि कोलेंज़ोमें एक भयंकर लड़ाई होनेवाली है । अतः उसके घायलोंकी सेवाके लिए तैयार रहनेके हेतु उन्होंने एक यूरोपीय शुश्रूषा-दल खड़ा करनेके लिए सूचनाएँ जारी कीं। इसपर हमने सरकारको तार द्वारा सूचित किया कि किस प्रकार हम स्वयं अपने-आपको इस कामके योग्य बना रहे हैं । सरकारसे हमको सूचना मिली कि हमें भारतीय आहत-सहायक दल बनाने में प्रवासी भारतीयोंके संरक्षककी मदद करनी चाहिए। चार पाँच दिनके अन्दर भिन्न भिन्न जायदादोंसे कोई एक हजार भारतीय एकत्र कर लिये गये । वास्तव में वे इस तरह अपनी सेवाएँ देनेके लिए बंधे नहीं थे और न उनपर किसी प्रकार जरा भी दबाव ही डाला गया था। बिलकुल खुशी-खुशी वे अपनी सेवाएँ देने को तैयार हो गये थे। यूरोपीय स्वयंसेवकों के साथ उन्हें भी, जबतक वे कामपर रहते थे, भोजनके अलावा हफ्ते में एक पौंड दिया जाता था । परन्तु मैं आपको बता देना चाहता हूँ कि इन डोली (स्ट्रेचर) उठानेवालोंमें कितने ही भारतीय व्यापारी थे और वे चार पौंड मासिकसे कहीं अधिक पैदा करते थे। इससे उनकी सेवाओंके मूल्यकी आप ठीक- ठीक कल्पना कर सकेंगे। परन्तु जैसा कि एक अधिकारीने कहा था, यह युद्ध अनेक बातों में आश्चयका युद्ध था । यूरोपीय स्वयंसेवकों में भी बड़ेसे-बड़े प्रतिष्ठित पुरुष थे, जो घायलोंको ढोनेका यह काम कर रहे थे। घायलोंकी सेवा करना एक विशेष सम्मानका काम समझा जाता था । और यह सही भी है ।
परन्तु प्रशिक्षण-प्राप्त नायक कोई पुरस्कार नहीं लेते थे । सुयोग्य डॉ० बूथ भी हमारे साथ बगैर किसी वेतनके नायकका काम कर रहे थे। कर्नल गालवेने बादमें उनको इन दलोंका चिकित्साधिकारी (मेडिकल आफिसर) नियुक्त किया । नायकोंमें दो भारतीय बैरिस्टर[१], आढ़तियोंकी लन्दन स्थित एक प्रसिद्ध दूकानसे सम्बन्धित एक भद्र पुरुष, दूकानदार और मुंशी थे ।
इस प्रकार जो दल बना वह कोलेंजोकी लड़ाईके तुरन्त बाद अपने काम में जुट गया । भूखे प्यासे और थके, हम गोधूलिवेलामें खियेवेलीकी छावनी में पहुँचे । दुश्मनकी छिपी हुई फौजके साथ अभी-अभी एक भयंकर लड़ाई समाप्त हुई थी। कर्नल गालवे हमें देखते ही दलके अधीक्षक (सुपरिटेंडेंट) के पास आये और उन्होंने पूछा कि क्या हम अभी, इसी क्षण, घायलोंको स्थायी अस्पतालमें पहुँचा सकेंगे ? अधीक्षकने अपने नायकोंपर प्रश्नात्मक नजर डाली और नायकोंने फौरन जवाब दिया कि वे तैयार हैं । रातके १२ बजे तक कोई तीस घायल अफसर तथा सिपाही अस्पताल पहुँचाये गये । काम इतनी मुस्तैदीसे किया गया कि अब वहाँसे उठानेके लिए कोई घायल नहीं बचा था । मध्य रात्रि में १२ बजे थे, जब अधिकतर स्वयंसेवकोंने अपने मुँहमें अन्न डाला । इनमें कई ऐसे लोग थे जिनको इस तरहका परिश्रम करने और भूखे रहनेकी कभी आदत नहीं थी ।
फासला पाँच मीलका था। यूरोपीय शुश्रूषा-दल, जो सेनासे सम्बन्धित था, लड़ाईके मैदान से घायलोंको मोर्चेके अस्पतालतक लाता था। वहाँ उनके घावोंकी मरहम-पट्टी होती
- ↑ गांधीजी और उनके सहयोगी, खान ।