मणी खूब हिल गई है, लेकिन अभी उसकी नाककी वह कुरूप बाली मेरे हाथ नहीं लग सकी है। लड़की बहुत प्रेमल है। चंचल भी है और वाचाल तो है ही।
गुजराती प्रति (एस० एन० १९३९९) को फोटो-नकलसे।
२२५. पत्र : निर्भयराम वि० कानाबारको
आश्रम
३० मार्च, १९२६
भाई निर्भयराम,
आपका पत्र मिला। नाक-कान छिदवाना वेद-विहित है, ऐसा तो मैं नहीं जानता। लेकिन वह वेद-विहित है, ऐसा यदि सिद्ध हो जाये तो भी मैं कहूँगा कि जिस तरह आज नरमेध नहीं होता, उसी तरह नाक-कान भी नहीं छेदे जा सकते। कान छिदवानेवाले ऐसे अनेक पुरुषोंको मैं जानता हूँ जिन्हें अण्डकोषकी वृद्धिका रोग हुआ है। और यह तो सब जानते हैं कि जिन्होंने नाक-कान नहीं छिदवाये हैं, ऐसे असंख्य लोग इस रोगसे मुक्त हैं। और में यह भी जानता हूँ कि इस रोगसे पीड़ित अनेक लोग कान छिदवाये बिना ही ठीक हो गये हैं। आपने जो वाक्य उद्धृत किया है, उसमें यह कहा गया है कि मालूम होता है कि कान आदि बिंधवानेका रिवाज बाहरसे दाखिल हुआ है। जब हमें तीन व्यक्तियोंपर विश्वास हो और उनमें मतभेद हो तब या तो हम अपनी बुद्धिका उपयोग करें या फिर जिसपर अधिक श्रद्धा हो उसका अनुसरण करें।
मोहनदास गांधीके वन्देमातरम्
समी
हारीज स्टेशन
गुजराती पत्र (एस० एन० १९८८३) की माइक्रोफिल्मसे।