३८६. पत्र: पारसी रुस्तमजीके न्यासीको
साबरमती आश्रम
१९ अप्रैल, १९२६
आप मुझे कम ही पत्र लिखते हैं। मगर मैं भी यही करता हूँ; इसलिए मैं समझता हूँ मुझे शिकायत नहीं करनी चाहिए। खुद सोराबजीकी जबानी आपके और आपके करोबारके विषयमें सारे शुभ समाचार मालूम हुए। मन बड़ा प्रसन्न हुआ।
यह पत्र आपको यह सूचित करनेके खयालसे लिख रहा हूँ कि अगर सम्भव हुआ तो जैसा सुझाव है, उस ढंगसे मैं सोराबजीकी मदद करना चाहूँगा। श्री डॉलको लिखे मेरे पत्रकी[१] नकलसे आपको मालूम हो जायेगा कि क्या सुझाव रखा गया है। आप सोचकर देखिए कि यह काम किया भी जा सकता है या नहीं।
हृदयसे आपका,
अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९४७७) की माइक्रोफिल्मसे।
३८७. पत्र: देवचन्द पारेखको
[१९ अप्रैल, १९२६][२]
भाई फूलचन्दने आपके बड़े भाईका[३] स्वर्गवास हो जानेका समाचार दिया है। समवेदना तो क्या प्रकट करूँ? हम तो यही चाहते हैं कि हमारे सगे-सम्बन्धी हमेशा बने रहें लेकिन हमारी चाही एक भी बात कहीं होती है क्या? और यदि हम अपने स्वार्थको भूल जायें तो मृत्यु-जैसी अनिवार्य और जीवनप्रद वस्तुका विलाप किसलिए करें? यह सूत्र क्या आपको सिखाना होगा? लेकिन इस घड़ी उसका स्मरण कराना उचित है।
पोरबन्दरसे कोई जवाब नहीं आया है।
मैंने मसूरी जानेका विचार छोड़ दिया है।
मोहनदासके वन्देमातरम्
गुजराती पत्र (जी॰ एन॰ ५७०९) की फोटो-नकलसे।