४१४. पत्र: जमनालाल बजाजको
साबरमती
२३ अप्रैल, १९२६
अण्णा[१] यहाँ आये हैं और आज ही जा रहे हैं। हिन्दी साहित्य सम्मेलनके साथ अभी झगड़ा चलता ही रहता है। अब तो ऐसा विचार किया है कि इसका भी न्यास बना दिया जाये। इसके बारेमें मैने परिपत्र[२] लिखा है। इसकी एक प्रति तुम्हें अण्णा देंगे। न्यासियोंके बारेमें कुछ सुझाव देना चाहो तो देना। न्यासियोंमें तीन प्रचारकों को भी रखा है, और यह ठीक है। उन्होंने जीवन-भर हिन्दी-प्रचार कार्य करनेकी प्रतिज्ञा ली है, इसलिए उन्हें न्यासियोंके रूपमें रखना उचित है। अण्णाके साथ बैठकर तुम इस बातका विचार कर लेना कि उन्हें जो पैसा देनेका निश्चय हुआ है वह उन्हें कितनी किस्तोंमें दिया जाये। इस तरह उन्हें भी कोई तकलीफ नहीं होगी और तुम्हें भी फिर उसकी चिन्ता करनेकी जरूरत न रहेगी। निश्चित अवधिपर उन्हें पैसे मिलते रहेंगे। हिसाबके बारेमें अण्णासे जो पूछना हो सो पूछना। हिसाब मैं नहीं देखूँगा। हिसाबकी जाँच करनेके सम्बन्धमें अण्णाकी जो कल्पना है उसे वह तुम्हारे सामने रखेंगे। मैं और भी बड़े न्यासके बारेमें सोच-विचार कर रहा हूँ। मुझे यह भी आवश्यक लगता है कि हम अपने हाथसे होनेवाले खर्चका हिसाब नियमित रूपसे प्रकाशित करें। आजतक खर्चमें बचतके लोभसे मैंने इस बातपर बहुत जोर नहीं दिया। मैं जानता हूँ कि हिसाब प्रकाशित करनेके बावजूद भ्रष्टाचार हो सकता है। इसलिए हमने कार्यकर्त्ताओंकी प्रामाणिकतापर ही आधार रखा है। लेकिन हिसाब प्रकाशित करनेमें जो थोड़ी-बहुत सुरक्षितता है, उसका लाभ हमें ले लेना चाहिए। छोटे-छोटे न्यास तो कितने ही हैं जिनका कि मुझे भी भान नहीं रहा है। मुझे ऐसा लगता रहता है कि यदि ये सब चीजें समय-समयपर विधिपूर्वक प्रकाशित हुई होतीं तो कितना अच्छा होता। लेकिन अब तो ऐसा होगा ही।
गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९४९१) की माइक्रोफिल्मसे।