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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। परन्तु लोहा, कितना ही तपाइये और साफ कीजिए सोना नहीं बन सकता। निस्सन्देह ईश्वराराधनाके सुन्दर ढंग मनुष्यके प्रयत्नोंके फल हैं। असंस्कृत ईश्वराराधना आदमके समयसे चली आती है; वह कमसे-कम उतना स्वाभाविक तो है जितना रोटी खाना या पानी पीना। बिना खाये तो मनुष्य काफी दिनों जीवित रह जाता है परन्तु ईश्वराराधना किये बिना वह एक पल भी जीवित नहीं रह सकता। इस तथ्यको चाहे वह न माने; किन्तु इसे न मानना वैसा ही होगा जैसा कि किसी बेसमझ व्यक्तिका अपने शरीरमें फेफड़ोंके अस्तित्व अथवा रक्तके प्रवाहको न मानना।

डाक्टर साहब विषयभोग और खाने-पीनेकी आवश्यकताओंको एक ही श्रेणीमें रखते हैं। यदि उन्होंने मेरा लेख ध्यानसे पढ़ा होता तो वह उसके उल्लेखके समय ऐसे भ्रममें न पड़ते। मैंने जो कुछ कहा था उसे अब मैं फिर दुहराता हूँ। मैंने कहा था कि केवल स्वाद या आनन्दके लिए खाना मनुष्यके लिए स्वाभाविक नहीं है। जीवित रहने के लिए खाना स्वाभाविक है। इसी प्रकार विषयभोग भी आनन्दके लिए नहीं, केवल सन्तानोत्पत्तिके लिए ही स्वाभाविक है।

मैं तो मरते दमतक विषयभोगसे दूर रहनेका ही प्रचार करूँगा। यह पहले डाक्टर साहब हैं जो कहते हैं कि विषयभोगसे तबतक प्रवृत्ति नहीं हट सकती 'जब-तक हमारी इच्छायें पूरी तरह तृप्त न हो जायें ।' अन्य डाक्टरोंने तो मुझे यही बताया है कि विषयभोग द्वारा इच्छाओंको तृप्त करने के प्रयत्नसे उसकी लालसा तो नहीं जाती उलटे सर्वनाशक नपुंसकता आ जाती है। विषयभोगसे विमुखता उत्पन्न करनेके लिए प्रयत्न तो बहुत लगता है; परन्तु फिर लाभ भी तो बहुत मिलता है। यदि विज्ञान आदिकी खोजमें, जिससे हमें केवल प्रत्यक्ष संसारका ज्ञान होता है, हम अपना जीवन बिता सकते हैं तो फिर क्या हम अपने जीवनकी गुत्थी सुलझानेके लिए आत्मज्ञान और ईश्वरके ज्ञानकी प्राप्तिके लिए अपना जीवन संयमित नहीं कर सकते।

जो आत्मनिग्रहके मार्गपर कुछ दूर चल चुका है उसे यह बतानेकी तो आवश्यकता ही नहीं रहती कि अहिंसा (प्रेम) से, न कि हिंसा (द्वेष) से ही मनुष्यमात्र अथवा यों कहिये कि संसार संचालित है। कुछ उदाहरण देकर डाक्टर साहब यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मैंने हिंसा की है। परन्तु इससे केवल उनकी मेरे कथनके बारेमें अनभिज्ञता प्रकट होती है। यह कोई जरूरी बात नहीं कि सब लोग मेरे लेख पढ़ते ही रहा करें; परन्तु कमसे-कम वे लोग तो पढ़ लिया करें जो मुझपर आक्षेप करनेका साहस करते हैं। मैंने केवल विदेशी कपड़ेका बहिष्कार करनेको कहा है। इस बहिष्कारके फलस्वरूप जिनका काम छूट जाये उन ब्रिटिश मजदूरोंके प्रति हिंसा कैसे हो जाती है? भारतवासी उन्हींका बनाया कपड़ा पहनते रहने के लिए बाध्य नहीं हैं। हिंसा तो वे ही करते हैं। विदेशी कपड़ा ब्रिटिश मजदूरोंकी बात कहकर, उनकी आड़में भारत के सिर जबर्दस्ती मढ़ना हिंसा है। यदि कोई शराबी शराब पीना छोड़ दे तो क्या वह शराब की दुकानवाले के प्रति हिंसा करना हुआ? वह तो अपना और उसका दोनोंका भला करता है। भारत भी जिस रोज विदेशी कपड़ेको काममें