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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शरीर सह सके उतनी कसरत करनी चाहिए। पहले तुमने पढ़नेका जो क्रम रखा था वह अब भी चलता है या टूट गया!

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र (एस० एन० १२१३०) की फोटो-नकलसे।

१२४. पत्र: जमनादास गांधीको

आश्रम
८ जुलाई, १९२६

चि० जमनादास,

तुम्हारा संक्षिप्त, खरा परन्तु डरावना पत्र मिला। लेकिन मैं तुम्हें बता चुका हूँ कि मैं ऐसे पत्रकी परवाह करनेवाला नहीं हूँ। तुम जानते हो कि जब अन्तिम रूपसे तुमने कहा था कि मुझे छोड़ दो तो मैं तुम्हें छुट्टी देनेकी बात सोचने लगा था। लेकिन अब में कतई ऐसा नहीं करना चाहता। यदि कोई आदमी कोई जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता है तो उसे उसको निभाने में अपने प्राण भी दे देने चाहिए। व्यक्ति और राष्ट्र भी इसी प्रकार ऊपर उठते हैं। लड्यानेसे दोनों बिगड़ते हैं। तुमने तो अभी-अभी एक नये आदमी अर्थात् जेठालालको रखा है सो क्या देखकर रखा है? मैं तुम्हें तुम्हारी कितनी प्रतिज्ञाओं की याद दिलाऊँ? मैं तुम्हें कबतक बच्चा मानूं? मैं जिस पत्रका उत्तर दे रहा हूँ, उस तरहके पत्रकी तुमसे फिर कभी अपेक्षा नहीं करता। जबतक मैं तुम्हारी बदली न करूँ तबतक तुम्हें वहीं दृढ़ होकर बैठना है। हम जो-कुछ चाहते हैं, इस जगत् में वह हमें पूरा-पूरा कभी नहीं मिलता, लेकिन हम जिस परिस्थितिमें पड़ें, हमें उस परिस्थितिको निभाना चाहिए। एक दृष्टिसे सभी अपनी-अपनी जगहके अयोग्य हैं और दूसरी दृष्टिसे जो अपने कार्यको मन लगाकर करते हैं, वे उसके लायक हैं। नालायक सिर्फ वे लोग हैं जो अपने धर्मको जानते हुए भी उसका पालन करना नहीं चाहते और सौंपे हुए कार्यको जान-बूझकर बिगाड़ते हैं। ऐसे नालायक तो तुम नहीं हो। फिर हमेशा बन्दूक ताने रहनेका क्या मतलब हो सकता है? इसलिए, तुम्हारे लिए एक ही आदेश है : चाहे कितने ही कष्ट सहने पड़ें, तुम जहाँ हो तुम्हें वहीं रहना और कर्त्तव्यपरायण बनना है।

बापू के आशीर्वाद

गुजराती पत्र (एस० एन० १९९२७) की माइक्रोफिल्मसे।