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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उसका वजन मालूम करना चाहिए, उसकी अच्छी लच्छियाँ बनानी चाहिए, और यदि कहीं भेजना हो तो उसे अच्छी तरह बाँधकर उसपर कपासकी किस्म, सूतका अंक, लम्बाई और वजनकी चिट लगा देनी चाहिए और यज्ञकर्ताका नाम-पता आदि अच्छे सुवाच्य अक्षरों में एक पुर्जेपर लिखकर उसके साथ बाँध देना चाहिए। इतना करनेपर उस दिनका चरखा-यज्ञ पूरा हुआ माना जा सकेगा। कातनेके पहिले कपास ओटना और धुनना, ये दो क्रियाएँ अवश्य होती हैं। चरखा-यज्ञकी तुलना रोटी-यज्ञसे की जाये तो कपास ओटना अर्थात् गेहूँ पीसना यदि घरके बाहर हो तो भी सहन किया जा सकता है, परन्तु आटा गूंधकर लोई बनानेकी क्रिया रुई धुनने-जैसी है। जैसे आटेकी लोइयाँ बनानेकी क्रिया दूसरी जगह नहीं की जा सकती, यह तो जहाँ रोटी बेली जाती है और सेकी जाती है वहीं की जागगी, उसी प्रकार रुई धुननेकी क्रिया भी वहीं की जानी चाहिए जहाँ कातनेका काम होता है। केवल इतनी ही स्वतन्त्रता दी जा सकती है कि एक कुनबेके लोगों में से एक भाई या बहन आटा गूँधकर तैयार करे और उसकी लोइयाँ बनाये और दूसरे सब लोग रोटियाँ बेलें और सेकें। इससे अधिक स्वतन्त्रता दी जायेगी तो रोटियाँ बिगड़ जायेंगी और यज्ञ भी दूषित हो जायेगा। उसी तरह सुविधाके लिए चुननेका काम भी जहाँ कातनेका काम होता है वहीं किसी एक ही मनुष्य द्वारा किया जाये, परन्तु इससे अधिक स्वतन्त्रता देने में तो सूत खराब होगा और चरखा-यज्ञ भी दूषित होगा। रुई धुननेकी क्रिया बड़ी ही सरल है। धुनकी बड़ी आसानीसे तैयार की जा सकती है और आसानीसे मँगाई भी जा सकती है। जहाँ बाँस मिलना सहज हो वहाँ घरमें काम लायक धुनकी फौरन बना ली जा सकती है। परन्तु जिसे चरखा-यज्ञकी लगन न लगी हो, वह चाहे तो धुनकी मँगा ले। लेकिन हरएक कातनेवालेको धुननेकी क्रिया तो सीख ही लेनी चाहिए। शायद मुझे यह कहने की आवश्यकता तो नहीं है कि धुननेकी क्रियाम धुनी हुई रुईसे पूनियाँ बनानेका काम भी शामिल है। धुनकर तैयार की गई रुई गूंधे हुए आटेकी पिंडी है और पूनियाँ उससे तैयार की गई लोइयाँ हैं। मैं समझता हूँ कि जिन भाई-बहनोंके विचार उपर्युक्त लेखकके जैसे रहे होंगे वे अब कातनेका अर्थ समझ गये होंगे।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, ११-७-१९२६