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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जैसे हम कितने ही कार्योंके परिणामोंकी कल्पना नहीं कर सकते तथापि उन्हें करते हैं वैसे ही हम आहारके सम्बन्ध में भी प्रयोग करते हैं। संयमकी दृष्टिसे भी आहारमें उचित अथवा अनुचितका विचार करनेकी पूरी गुंजाइश है।

मैं भारत की सेवा करता हूँ। जगतके प्राणियोंकी सेवा उसीमें आ जाती है, क्योंकि मेरी सेवा अहिंसामयी है। जो निःस्पृह होकर निःस्वार्थ भावसे एक ही सेवा करता है, वह सबकी सेवा करता है।

मुझे किसीको लड़ने की अनुमति देने की आवश्यकता नहीं होती। मैं तो जो लड़ना चाहते हैं उन्हें अपनी बुद्धिके अनुसार यही बताता हूँ कि उनका धर्म क्या है। उसका परिणाम अवश्य ही प्रारब्धके अनुसार आता है, लेकिन हम त्रिकालदर्शी नहीं है; इसलिए हमें तो परिणामको चिन्ता किये बिना सुप्रयत्न करते जाना चाहिए। जब रामराज्य आ जायेगा तब मेरा कर्त्तव्य यह होगा कि मैं अपनी आजीविका स्वयं कमानेका पूरा प्रयत्न करूँ और इस तरह किसीपर भाररूप न बनूं। मैंने व्यवहारमें ऐसे धर्मपर आचरण होते नहीं देखा।

धर्मको व्यवहारके अनुरूप ढालनेकी अपेक्षा हम व्यवहारको धर्मके अनुरूप ढालने की बात क्यों न करें? जो व्यवहार धर्मविरुद्ध है, वह त्याज्य है। मैं जिस सत्यको मानता हूँ, वह जगतकी मान्यतापर कतई निर्भर नहीं है। मैं तो उसी सत्यको मानता हूँ जो मेरा अनुभूत है। किसी शास्त्रमें, धर्ममें अधर्मकी जितनी मिलावट होती है वह उतना ही कम सम्माननीय होता है।

मैं यह मानता हूँ कि प्रकृति और उसके नियन्ताके स्वरूपको कोई बिरला व्यक्ति जान सकता है, लेकिन उसका वर्णन तो कोई नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति होने के कारण मैं मानता हूँ कि उनके वर्णनोंमें विविधता तो अन्ततक रहेगी ही। जिस पुरुषने अनेक स्त्रियोंसे विवाह किया हो यदि वह पुरुष भी राग-द्वेष रहित हो जाये और सब स्त्रियों को माँ-बहनके समान मानने लग जाये तो वह अवश्य मोक्षका अधिकारी बन सकता है।

इन्द्रियोंमें निहित वासना मनुष्य स्वभावके विरुद्ध है; अतः वह त्याज्य है। स्त्री और पुरुष दोनों स्वतन्त्र हैं। इसी कारण मनुष्य विषयवासनाके अधीन होकर उनकी पराधीनतामें जो आचरण करे, हम उसे व्यभिचार न कहें तो और क्या कहें? यदि विवाहोपरान्त पति-पत्नीके मनका मेल नहीं बैठता तो इसमें सम्बन्ध विच्छेद करने की क्या बात है? जिस तरह पिता-पुत्रका परस्पर मेल न बैठे तो भी उनका सम्बन्ध रह सकता है, उसी तरह मैं पति-पत्नीके सम्बन्धको भी अविच्छेद्य मानता हूँ। वे मेल न खानेपर एक-दूसरेसे असहयोग कर सकते हैं; लेकिन विवाह-सूत्रमें बँधनेके बाद उस सूत्रको धर्मके अनुसार किसी भी अवस्थामें तोड़ नहीं सकते। एक पुरुष केवल एक स्त्रीसे और एक स्त्री केवल एक पुरुषसे तथा वह भी केवल सन्तानोत्पत्तिके विचारसे संसर्ग करे; मेरी दृष्टिमें तो उनकी स्वतन्त्रताकी सीमा इतनी ही होनी चाहिए।

काल तो अपना काम करता ही रहता है। पुरुषार्थ इसीमें है कि हम उसके परिवर्तनोंका पहले से ही अनुमान कर लें और तदनुसार आचरण करनेका प्रयत्न करें।