पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 31.pdf/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

१६४. पत्र : मोहनलाल पण्डयाको

आश्रम
साबरमती
शुक्रवार, १६ जुलाई, १९२६

भाईश्री ५ मोहनलाल पण्ड्या,

तुम्हारा पत्र मिला। तुम सुणाव हो आये हो या अभी जानेवाले हो? मैंने तुम्हारा पत्र वल्लभभाईको दिखाया था। इस बारेमें क्या किया जा सकता है, उन्हें सूझा ही नहीं। तुमने मुझे कुम्हारोंके विषयमें लिख दिया यह अच्छा किया। हतोत्साह हो जानेपर भी हम इस समय दो काम तो कर ही सकते हैं: एक तो हम उनमें न्याय और स्वतन्त्रताकी भावना जगा सकते हैं। जब उन लोगोंने बेगार बन्द कर दी है तब मेहरबानीकी कोई उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। कोई मनुष्य उनसे अपने निजी कामके लिए मिट्टी मँगाये तो उन्हें नहीं लानी थी। मुझे लगता है कि अधिकारके रूपमें तो केवल खपरैल बनाने के लिए ही मिट्टी माँगी जा सकती है। इसलिए कुम्हारोंको इस विषयमें पूरे तौरपर अपने सम्मानकी रक्षा करनी चाहिए। उन्हें आत्मसम्मानकी रक्षा करनेकी शिक्षा दी जानी चाहिए। मेरे विचारसे उनका मिट्टी खोदनेकी अनुमति लेना आवश्यक है। यदि खेतोंमें से कोई भी मनुष्य चाहे जहाँसे मिट्टी खोद ले तब तो खेत एकके बाद एक नष्ट होते चले जायेंगे।

दूसरी बात यह है कि हमें अधिकारियोंको अपना शत्रु नहीं समझना चाहिए। हमें उनके साथ मित्ररूपमें बात करनेमें कोई संकोच नहीं करना चाहिए। जहाँ सरासर अन्याय किया जा रहा हो वहाँ मुझे उनको समझानेमें कोई दोष नहीं दिखाई देता। अगर हम सत्याग्रह करते हैं तो भी हमारा पहला कदम तो समझाना ही हो सकता है। फिर बेचारे कुम्हार असहयोगी तो हैं नहीं। इसलिए उनके हितकी भावनासे अधिकारियोंको समझानेमें कोई आपत्तिकी बात नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि कुछ अंशोंमें और कुछ स्थितियोंमें उनको समझाना हमारा कर्त्तव्य होता है। अतः आप इन सब बातोंपर विचार करके जो-कुछ करना उचित समझें सो करें।

गुजराती प्रति (एस० एन० १२२०३) की फोटो-नकलसे।