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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हुआ। मुझे यह मानते हुए कोई संकोच नहीं है कि सम्भव है इसमें दोष मेरा ही हो। मैं तो यहाँ केवल पाठकोंके सामने अपनी स्थिति रख रहा हूँ। 'गीत गोविन्द' कामेरे ऊपर अच्छा असर नहीं हुआ, इसलिए मेरे लेखे तो वह त्याज्य ही रहा। मैं उसे त्याज्य मान सका, उसका कारण यह है कि मेरे पास अपना एक मानदण्ड है। जो वस्तु मुझे निर्विकार कर सकती है, मेरे राग-द्वेष आदिको नरम बना सकती है, जिस वस्तुका मनन मुझे शूलीपर चढ़ते हुए भी सत्यपर दृढ़ रखनेमें सहायक हो सकता है वही वस्तु मेरे लेखे धार्मिक शिक्षण हो सकती है। 'गीत गोविन्द' इस कसौटीपर खरा नहीं उतरा और इसलिए मेरे लेखे वह पुस्तक त्याज्य ही है।

आज हमारे बीच ऐसे बहुतसे युवक और वयोवृद्ध सज्जन हैं जो मानते हैं कि अमुक वस्तु शास्त्रमें है इसलिए करणीय है। इस मान्यतासे सहज ही हमारी अधोगति हो सकती है। हम यह भी नहीं जानते कि शास्त्र किन्हें कहें। यदि हम इस बातमें विश्वास करें कि जो-कुछ शास्त्रोंके नामसे प्रचलित है वह धर्म है और इसलिए हमें तदनुसार आचरण करना चाहिए तो उसका परिणाम अनर्थकारी ही होगा। 'मनुस्मृति' को ही लें। मैं नहीं जानता कि 'मनुस्मृति' में क्या क्षेपक है और क्या वास्तविक। इसमें कुछ श्लोक तो ऐसे हैं जिनका धर्म कहकर समर्थन किया ही नहीं जा सकता। ऐसे श्लोकोंको हमें त्याज्य ही मानना चाहिए। मैं तुलसीदासका पुजारी हूँ, 'रामायण' को उत्तमसे-उत्तम ग्रन्थ मानता हूँ, किन्तु 'ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़नके अधिकारी' में जो विचार निहित है, मैं उसे सम्माननीय मान ही नहीं सकता।

तुलसीदासने अपने जमानेमें जो रूढ़ि पड़ी हुई थी उससे प्रभावित होकर यह लिख दिया। इसलिए मेरा अपनी पत्नी, पशु अथवा जिन्हें मैं शूद्र मानता हूँ उनको मेरे मतानुसार वर्तन न करनेपर मार बैठना सदाचरण नहीं हो सकता। मैं सोचता हूँ कि अब उपर्युक्त प्रश्नोंका उत्तर स्पष्ट हो गया होगा। जहांतक देवी-देवताओंकी बात नीतिपोषक हो, उस अंशतक उसे मानने में मुझे कोई अड़चन दिखाई नहीं देती। मैं ऐसा नहीं मानता कि रूपकोंको खोलकर बालकोंके सामने रखनेमें उनका रस नष्ट हो जाता है। किन्तु यदि ऐसा होता ही हो तो सत्यका नाश करके रसके पोषणकी रूढ़िको माननेवालोंमें मैं नहीं हूँ। हमें तो विद्यार्थियोंके सामने वही रस प्रस्तुत करना चाहिए जो सत्यमें निहित है। यह प्रकट किया जा सकता है, ऐसा मेरा अनुभव है। बालकोंको यह बात समझा देनेके बाद कि दस सिरवाला राक्षस आजतक संसारमें न हुआ है, न आगे होगा, रावणके विषयमें यह मानकर कि वह हुआ है। रावणकी बातें समझाना मुझे सत्य अथवा रसके लिए हानिकारक नहीं लगता। बालक समझ ही जाता है कि दस सिरवाला रावण हमारे हृदयमें रहनेवाली दस नहीं, हजार सिरवाली दुष्ट वासनाएँ हैं। ईसपकी कहानियोंमें पशु-पक्षी बोलते हैं। बालक जानते हैं कि पशु-पक्षी बोल नहीं सकते, फिर भी वे उन कहानियोंको पढ़ते हैं और उससे उत्पन्न होनेवाले आनन्दमें कोई कमी नहीं होती।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, १८-७-१९२६