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२१२. पत्र: गंगाधरराव देशपाण्डेको

आश्रम
साबरमती
२७ जुलाई, १९२६

प्रिय गंगाधरराव,

आपकी गतिविधियोंकी जानकारीसे भरा-पूरा पत्र मिला। मुझे इस पत्रमें आशा और निराशा दोनों ही दिखीं। अगर हमारे प्रयोग पूरे हो जाते हैं— अर्थात् हमें मूल सिद्धान्तोंके ही अनुसार उसमें सफलता मिल जाती है तो निराशाका कोई भी कारण नहीं बचता।

गरीब जनता जड़ बन गई है क्योंकि उसके लिए जीवनमें कोई रस ही नहीं बचा। जब हम काफी लम्बे अरसेतक उसके बीचमें रहकर काम करेंगे तभी उसे जीवनमें रुचि पैदा होगी। यदि हमें यह विश्वास रहे कि जनसाधारणकी समस्याको सुलझानेका एकमात्र उपाय हमारा सोचा हुआ काम ही है तो हम इसके पूर्ण सुफलके लिए युगोंतक प्रतीक्षा कर सकते हैं। अपनी अनास्था और अधैर्यके कारण ही हम बहुधा एकसे दूसरे निदानकी ओर भागते हैं और फलस्वरूप कुछ भी जम नहीं पाता तथा हालत बदसे बदतर होती जाती है।

जुलाहे हाथकते सूतसे कपड़ा नहीं बनना चाहते। इसके दो कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि हमारा सूत मिलके सूत जैसा मजबूत नहीं होता, दूसरे जुलाहोंको इस बातका यकीन नहीं है कि हाथ-करघोंका काम स्थायी रूपसे चलता रहेगा। उनमें अपेक्षित विश्वास तो समयके साथ ही पैदा होगा। और हमें सूतकी किस्म बेहतर बनानेके लिए लगातार परिश्रम करते रहना चाहिए। दिन-प्रतिदिन हमें बढ़िया सूत काते जानेपर आग्रह करना चाहिए। हमें कातनेवालोंके चरखोंकी जाँच करनी चाहिए, उनकी खामियाँ ठीक करनी चाहिए, ताकि वे बढ़िया सूत अधिक गतिसे कात सकें। हमारे चरखोंमें सुधारकी गुंजाइश तो है ही।

हम लोग आश्रममें सूतकी किस्म सुधारनेके प्रयोग कर रहे हैं। हर पखवारे इसकी जाँच की जाती है। जो कुछ सुधार हो पाया है, वह सचमुच आश्चर्यजनक है। उसके आँकड़े मैं प्रकाशित करूँगा।

जो जानकारी आपने मुझे दी है, उसका सावधानीके साथ सीमित उपयोग में 'यंग इंडिया' के पृष्ठोंमें करनेवाला हूँ। जो तालिका[१] इस सप्ताह छप रही है उसे

  1. देशपाण्डेने ४ अगरतको इसके उत्तर में लिखा था कि उनको अपने कार्य से लेशमात्र भी निराशा नहीं है। उनको इस बातका पक्का विश्वास है कि जनसाधारणकी समस्थाको हल करनेका एकमात्र यही मार्ग है और यह भी कि वे धैर्यपूर्वक अपना काम जारी रखेंगे और गांधीजीके सुझावको कार्यरूपमें परिणत करेंगे। (एस० एन० ११२१७)।