पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 31.pdf/२६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२९
अनीतिकी राहपर—५

किन्तु वह बहुत जल्दी समझ जाता है कि यह कोई सीधी-सादी बात नहीं है और इसे सुलझाना बहुत कठिन है। हम मन और विवेक, दोनोंको एक मान बैठते हैं। होने को तो दोनोंमें हमारी ही शक्ति संचरित है, किन्तु इन दोनोंमें भेद बहुत है। तरह-तरहकी इच्छाएँ हमारे मनको उद्वेलित करती रहती हैं। हम सभी कुछ पाना चाहते हैं, पर साथ ही यह भी जानते हैं कि हमें कुछ-न कुछ छोड़ना पड़ेगा। मन और विवेक, दोनोंमें से हम किसकी मानें? महान् शिक्षाशास्त्री फोरेस्टरके शब्दोंमें विवेकसे जो विचार उत्पन्न होता है उसकी मानें या निम्नतम इन्द्रिय-लासलाको? यदि समाजकी उन्नति वासनापर विवेककी विजय, विषयेच्छाके ऊपर आत्मबलकी विजयमें हो तो चुनाव करनेमें कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। किन्तु आप कह सकते हैं कि मैं चुनाव-उनावके फेरमें नहीं पड़ना चाहता; मैं तो अपने अस्तित्वके सांग, सुगठित और संवादी रूपको पाना चाहता हूँ। बात तो बहुत अच्छी है, किन्तु याद रखिए कि यह संकल्प भी एक चुनाव ही है, क्योंकि सुसंवादिता स्थापित होती है संघर्षके माध्यमसे ही। गेटेने कहा, "मरकर जियो"। उन्नीस शताब्दी पहले कहे गये ईसाके इन वचनोंमें भी यही प्रतिध्वनित होता है । ईसाने कहा : अस्तु, मैं तुमसे कहता हूँ जबतक गेहूँका दाना भूमिमें गिरकर मिट नहीं जाता, वह अकेला बना रहता है। किन्तु वह एक जब मिट जाता है तो अनेक बन जाता है।

महाशय गेब्रियल सोलेस भी लिखते हैं: यह कहना कि हम आदमी बनना चाहते हैं, सरल है; किन्तु हम इसे कहते हुए भूल जाते हैं कि हरएक अधिकार आगे-पीछे कर्त्तव्य, कठोर कर्त्तव्यका रूप ले लेता है और फिर इसके पालनमें पूरा-पूरा सफल तो कोई भी नहीं हो पाता । हम स्वतन्त्र होना चाहते हैं; धमकीके स्वरमें स्वतन्त्र होकर रहने की बात करते हैं। यदि इस स्वतन्त्रताका अर्थ अपनी इन्द्रियोंकी गुलामी हो तो फिर वह कोई गर्व करनेकी बात नहीं हो सकती। सच्ची स्वतन्त्रता पाने के लिए हमें कमर कसकर सतत संघर्षके लिए तैयार हो जाना चाहिए। हम सामाजिक एकताके साथ-साथ अपने व्यक्तित्व और स्वतन्त्रताकी दुहाई देते हैं और गर्वपूर्वक कहते हैं कि आखिरकार हम भी ईश्वरके अमर पुत्र हैं। किन्तु जब हम अपने इस अमर 'आपे ' को मुट्ठीमें बाँधना चाहते हैं तो वह हमसे छूट-छूट जाता है और तब पता चलता है कि हमारे कितने ही असंगत और परस्परविरोधी स्वरूप भी हैं। हमारे आपेको कितनी ही विरोधी इच्छाएँ प्रतिक्षण विकल करती रहती हैं। ये विरोधी इच्छाएँ ही हमारे व्यक्तित्वको बनाती हैं। व्यक्तित्व (यदि उसके तात्त्विक रूपको छोड़ दें तो) रागद्वेषसे ही प्रभावित होता है। उसकी स्वतन्त्रता कृत्रिम है और सच कहें तो वह गुलामी है। अलबत्ता यह गुलामी ऐसी है जिसे वह समझ नहीं पाता और उसके बन्धनमें फँस जाता है।