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पत्र : क० नटराजनको

इसे प्रकाशित न किया जाये। उन्होंने जो कारण बताये हैं, वे मेरे खयालसे ठीक और इसलिए मैंने अभी उनके पत्र और अपने उत्तरको प्रकाशित करना रोक रखा है। आपकी जानकारीके लिए यह बता दूं कि मैं खुद अपनी जिम्मेदारीपर उस पैसेका उपयोग करने नहीं जा रहा हूँ। लेकिन इस दलगत संघर्षकी गरमागरमी कम होते ही, मैं विट्ठलभाईके इस दानकी खासी रकमका उपयोग करनेका अच्छेसे अच्छा तरीका निकालने में कई नेताओंका सहयोग लेनेकी सोच रहा हूँ। उन्हें राष्ट्रके निमित्त जो थैली भेंट की गई है, उसमें से बची हुई रकम उन्होंने मुझे भेज दी है। इस बातको आप बिलकुल गोपनीय रखें या अगर आपको ऐसा लगे कि 'हिन्दू' ने इस सम्बन्धमें जो लिखा है उसे बतलाते हुए आपको कुछ प्रकाशित करना ही चाहिए, तो आप स्वयं ही विट्ठलभाईको लिखें।

जहाँतक सर्वोच्च न्यायालयकी स्थापनाका[१] सवाल है, में इस सिलसिलेमें चलने-वाली बहसपर लगातार नजर रखे हुए हूँ। मैंने इस सम्बन्धमें 'यंग इंडिया' में लिखनेके खयालसे सामग्री इकट्ठी की थी, लेकिन फिर निश्चय किया कि मैं खुद इसके बारेमें नहीं लिखूंगा। अब मैं इसपर दुबारा विचार करूँगा। गण्यमान्य वकीलोंने जो आपत्तियाँ उठाई हैं, मुझे तो वे बिलकुल नहीं जँची। इसके विपरीत, मुझे तो यह देखकर दुःख और आश्चर्य हुआ कि सर हरिसिंहके[२] बहुत ही नरम और निर्दोष प्रस्तावका भी विरोध किया गया है। लेकिन, हमारा आत्मविश्वास बिलकुल ढह चुका है। मुझे प्रिवी कौंसिलके सामने पेश मामलोंका कुछ अनुभव है। और मेरा यह निश्चित मत है कि प्रिवी कौंसिलके सदस्य राजनीतिक आग्रहोंसे मुक्त नहीं हैं और अपनी तमाम सावधानियोंके बावजूद वे परम्परासे सम्बन्धित मामलोंमें गम्भीर भूलें कर जाते हैं।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत क० नटराजन

सम्पादक
‘इंडियन डेली मेल'

फोर्ट, बम्बई

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १०९७४) की फोटो-नकलसे ।

  1. अगले अंशमें गांधीजीके अपने वे विचार हैं जो उन्होंने इंडियन डेली मेलके अनुरोधपर व्यक्त किये थे और उस पत्रमें ५ अगस्तको प्रकाशित हुए थे। इनको हिन्दुस्तान टाइम्सके ७-८-१९२६ और लीडरके १२-८-१९२६के अंकोंमें भी प्रकाशित किया गया था।
  2. हरिसिंह गौड़।