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राष्ट्रीय शालाएँ

चली जा रही है। अगर हमें गायों और भैंसोंका बड़े शहरोंमें सदुपयोग करना न आयेगा तो इसमें कोई शंका नहीं कि उनका बचाव किसी भी उपायसे न किया जा सकेगा।

आज तो हालत ऐसी नहीं जान पड़ती कि हम रेलोंके बिना काम चला सकें। लेकिन अगर हम यह समझ लें कि रेलोंसे भारतको निरा लाभ-ही-लाभ नहीं हुआ है, तो हम हाथमें सत्ता आनेपर रेलोंका उपयोग मर्यादित कर देंगे। इसी तरह हम मोटरोंको सर्वथा तिलांजलि देनेमें चाहे असमर्थ हों, लेकिन अगर हमें बैलोंकी रक्षा करनी है तो मोटरोंकी मर्यादा बाँधनी ही पड़ेगी। हम मोटरोंसे अपने खेत जोतें और बैलोंको निकम्मा रखें, यह बात तो सभीको असम्भव लगनी चाहिए। भारतका अर्थशास्त्र भारतकी परिस्थितियोंके अनुरूप बनाया जायेगा, वह तभी सराहनीय और स्थायी होगा। अपनी परिस्थितिका विचार करके देशका अर्थशास्त्र तैयार करने में ही हमारी कुशलता और हमारी सभ्यताकी कसौटी है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, ८-८-१९२६

३०१. राष्ट्रीय शालाएँ

एक अनुभवी सेवक लिखते हैं :[१]

पहले तो हम ऊपरके तर्कमें सर्पदंशकी जो उपमा दी गई है उसपर विचार करें। ऐसे दृष्टान्त हमेशा त्रुटिपूर्ण होते हैं, क्योंकि दो बातोंमें सारे संयोग बिलकुल एकसे हों, यह बहुत कम सम्भव है । और यदि उपमा अथवा दृष्टान्त आवश्यक बातों में भी त्रुटिपूर्ण हो तो वह मिलान बिलकुल ही खण्डित हो जाता है और मिलानके आधारपर चलनेवाला मनुष्य भ्रमित हो जाता है। सर्पदंशके बाद साँस लौट आनेकी आशा रहती है। वैद्यने यदि यह घोषित न कर दिया हो कि व्यक्ति मर चुका है और उसके शरीरको हम जला दें तो फिर विषको दूर करनेका प्रश्न ही नहीं रहता। इसलिए कई बार शरीरको दो-चार दिनतक रख छोड़ना समझदारी मानी जाती है। क्योंकि हम भस्म किये हुए शरीरको फिरसे उत्पन्न करने की शक्ति नहीं रखते। किन्तु कथित राष्ट्रीय शालाओंके सम्बन्धमें जो मैंने यह कहा है कि उन्हें या तो सुधारा जाये या वे बन्द कर दी जायें, उसपर ऊपरकी तीनों स्थितियोंमें से एक भी स्थिति लागू नहीं होती। क्योंकि उनके राष्ट्रीय होनेकी सम्भावना ही नहीं है। यही उचित होगा कि जिस स्कूलको वैद्यने स्वयं जाँच करके मृत होनेका प्रमाणपत्र

दे दिया है और जो मनुष्यकी कृति होनेके कारण फिर उत्पन्न की जा सकती है ऐसी शालाओंका तो नाश ही इष्ट है। ऐसी शालाओंको बनाये रखना हमारे बीच मिथ्याको बनाये रखने जैसा है। राष्ट्रीय शालाके नामसे एकत्र किया हुआ पैसा नाम मात्रकी

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखकने कहा था कि जो राष्ट्रीय शालाएँ आदर्शच्युत हो गई हैं उन्हें तो बन्द कर दिया जाना चाहिए, किन्तु केवल अभिभावकों के विरोधके विचारसे उन्हें बन्दकर देना उचित नहीं है।