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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

साथ-साथ दृढ़ताका नमूना है। पत्र लिखने के बाद जो तय किया था वही काम करना, मजिस्ट्रेटके साथ मिलनेसे उनका इनकार करना, कलकत्ते में विजय प्रवेश और अपने वहाँ निश्चित कार्यक्रमके अनुसार ऐसे शान्त भावसे सब काम करते जाना मानो कुछ हुआ ही नहीं, लोगोंको दिमाग ठण्डा रखने, कोई दिखावा न करने आदिकी सलाह देना सविनय अवज्ञाके अनुकरणीय उदाहरण हैं। यह उम्मीद की जा सकती है कि सरकार अब यह समझ जायेगी कि सत्याग्रहके सिद्धान्तका इस देशमें नाश नहीं होगा और जब कभी जरूरत पड़ेगी, पर्याप्त लोग उसके लिए तैयार हो जायेंगे।

यदि हिन्दू और मुसलमान, दोनों यह समझें कि मालवीयजी और डाक्टर मुंजे-के नाम नोटिस जारी करके सरकारने हिन्दुओंके विपक्षमें या मुसलमानोंके पक्षमें कोई काम किया है, तो यह उनकी भूल होगी। सरकारकी चक्कीमें तो जो सामने आ जाये वही पीस दिया जाता है। यदि सरकारको जरूरत पड़ेगी तो आज जिस प्रकार एक प्रमुख हिन्दूके खिलाफ उसने नोटिस जारी किया है उसी प्रकार कल किसी उतने ही प्रमुख मुसलमानपर भी उसकी ऐसी ही नज़रे-इनायत होगी। सरकारके इस कथनसे कि सचमुच वह शान्ति चाहती है, कोई धोखा नहीं खायेगा। मैं तो यह कहनेका भी साहस करूंगा कि तलवारके बलपर हिन्दुस्तानमें ब्रिटिश राज बनाये रखनेकी इच्छाके साथ हिन्दू-मुसलमानोंमें मेलकी सच्ची कामनाका मेल बिलकुल नहीं बैठता। जब अंग्रेज अफसर एक ही परिवारकी इन दो शाखाओंमें मेलके लिए कोशिश करने लगेंगे, तभी वे हमारी रजामन्दीसे यहाँ रहना शुरू करेंगे। आखिर इस बातका पता कि हिन्दुस्तानका शासन 'फूट डालो और शासन करो' की नीतिके अनुसार ही होता है, यदि मैं भूलता नहीं हूँ तो किसी हिन्दुस्तानीने नहीं बल्कि एक अंग्रेजने ही पहले-पहल लगाया था। या तो स्वर्गीय ऐलन ऑक्टेवियस ह्यूमने या जॉर्ज यूलने ही हमें बताया था कि साम्राज्यका आधार फूटके बलपर शासन करनेकी नीतिपर ही आधारित है। हमें इसपर न तो आश्चर्य करना चाहिए और न इसका कुछ बुरा ही मानना चाहिए। रोमकी बादशाहत भी ऐसा ही करती थी। इन अंग्रेजोंने बोअरोंके साथ भी ऐसा ही तौर अपनाया कुछ लोगोंपर विशेष दयादृष्टि रखकर बोअरोंमें फूट पैदा करनेकी कोशिश की गई थी। भारत सरकार टिकी ही अविश्वासपर है। अविश्वाससे कुछ लोगोंकी तरफदारी और तरफदारी करनेसे फूट होगी ही। ऐसे कितने ही स्पष्ट अंग्रेज वक्ता हैं जिन्होंने यह बात स्वीकार कर ली है। भारतीय इतिहासका कोई भी गम्भीर पाठक, वाइसराय या गवर्नरोंके हालके शान्ति सम्बन्धी कथनोंको नहीं मान सकता। मैं यह माननेको तैयार हूँ कि वाइसराय महोदयने जो-कुछ कहा है सच्चे दिलसे कहा है। सरकारकी नीतिको फूटनीति कहनेके लिए यह जरूरी नहीं कि बड़े-बड़े अफसरोंको भी बेईमान कहना पड़े और यह भी जरूरी नहीं कि फूटनीतिपर हमेशा जानबूझकर ही अमल किया जाये। हिन्दुओंके विरुद्ध मुसलमानों, अब्राह्मणोंके विरुद्ध ब्राह्मणों, दोनोंके ही विरुद्ध सिखों, तीनोंके विरुद्ध गोरखोंको लड़ानेका यह उलट-पुलट और सांठ-गांठका खेल जबसे अंग्रेजी राज्य शुरू हुआ है, तभीसे हो रहा है और तबतक होता ही रहेगा जबतक सरकारको यह विश्वास रहेगा कि