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जिनका मेरे विद्यार्थियोंके अनुभवोंसे समंजस बैठता हो, गणित और भौतिकीकी ऐसी पुस्तकें बनाने में मेरा काफी समय लग रहा है। सबकी-सब अंग्रेजी पाठ्यपुस्तकें— हिन्दुस्तानी पाठ्यपुस्तकें भी — शहरी लड़कोंके लिए ही लिखी हुई मालूम होती हैं। वे किताबें यह बात मानकर लिखी जाती हैं कि सब प्रकारको मशीनों और कारखानोंमें बने उपकरणोंका ज्ञान लड़कोंको है। लेकिन यहाँके बालकोंने शायद मोटरगाड़ी, इंजिन, बिजलीके लैम्प, पम्प, नल इत्यादि यहाँतक कि बैलगाड़ियाँतक— नहीं देखे हैं। इस कारण भौतिकीकी और गणितकी पाठ्यपुस्तकोंकी भी अनेक कल्पनाएँ, चित्र, पारिभाषिक शब्द और उनका क्रम इन बालकोंके लिए मुश्किल बैठता है। उनमें उन बालकोंको रस नहीं आता और वे उन्हें सीख भी नहीं सकते। इसलिए मैं धीरे-धीरे हिन्दुस्तान के देहाती लड़कोंके लिए भौतिकी और गणितको पाठ्यपुस्तकें तैयार कर रहा हूँ। हिन्दुस्तानके अधिकतर बालक गाँवोंमें रहनेवाले होते हैं, इसलिए मैं समझता हूँ कि ये पुस्तकें लाभदायक सिद्ध होंगी।

लेकिन श्री ग्रेगके पत्रसे कई बड़े-बड़े प्रश्न पैदा होते हैं। इंग्लैंड और अमेरिका जैसे नागरिक सभ्यता प्रधान, शोषणशील और धनिक देशोंके लिए जो ठीक है वह ग्राम प्रधान दरिद्र और परदेशियोंके चंगुलमें फँसे हिन्दुस्तानके लिए ठीक नहीं हो सकता। अगर हिन्दुस्तानमें बहुत-सी पाठ्यपुस्तकें बनाई जायें तो बहुतसे देहाती बालकोंका शिक्षण साधन ही छिन जाये, क्योंकि वे इतनी पुस्तकें नहीं खरीद सकते। इसका अर्थ यह है कि हिन्दुस्तानमें पाठ्यपुस्तकें— खासकर नीचेकी श्रेणियोंमें पढ़ाई जानेवाली पुस्तकें— ज्यादातर शिक्षकोंके लिए होनी चाहिए न कि विद्यार्थियोंके लिए। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि अगर बालकोंको प्राथमिक शिक्षण पुस्तकों द्वारा देनेकी अपेक्षा जबानी ही दिया जाये तो शायद वह ज्यादा फायदेमन्द होगा। छोटी उम्र में लड़कोंके ऊपर बारहखड़ी सीखनेका बोझा डालना और सामान्य ज्ञान मिलनेके पहले ही उनको पुस्तकोंके द्वारा शिक्षण देना, मानो सुनकर ज्ञान प्राप्त करनेकी उनकी शक्तिको छीनना है। उदाहरणके लिए क्या सात वर्षके बच्चेको पढ़ना सीख जानेतक 'रामायण' की शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए? सामाजिक, आर्थिक अथवा राजनैतिक सभी शिक्षण सम्बन्धी बातोंमें हिन्दुस्तानके चन्द लाख शहरी बच्चोंकी दृष्टिसे सोचनेपर हम जिन निष्कर्षोंपर पहुँचते हैं, गाँवोंमें रहनेवाले करोड़ों बच्चोंको ध्यान में रखकर विचार करनेसे हम उन निष्कर्षोंपर नहीं पहुँचते। इसलिए यह स्पष्ट है कि श्री ग्रेगके इस प्रयत्नका परिणाम महत्त्वपूर्ण होगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १६-९-१९२६