पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 31.pdf/४७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

४५३. पत्र : गोपबन्धु दासको

आश्रम
साबरमती
१८ सितम्बर, १९२६

प्रिय गोपबन्धु बाबू,

आपका पत्र[१] मिला। आपने उड़ीसाका जो चित्र खींचा है, वह बड़ा दर्दनाक मगर मैं आपको यही सलाह दूंगा कि आप सहायता देते हुए चारों ओर न भटकें। हमें चाहिए कि हम विनम्रताके साथ अपनी मर्यादा पहचानें। हम देवता नहीं हैं। हम तो केवल कमजोर और तुच्छ मानवप्राणी हैं। कोई सरकार भी ऐसी नहीं है जो हमें सहायता देती हो, यहाँतक कि हमारी अपनी संस्था, कांग्रेस विच्छिन्न हो गई है। कार्यकर्त्ताओंकी सेनापर हमारा नियन्त्रण नहीं है। हम संगठनरहित बिखरे पड़े हैं। अलग-अलग व्यक्तिमात्र हैं। यदि हम अपनी इस मर्यादाको पहचान लें, तो हमें चिन्ता नहीं होगी और करने योग्य बहुत काम हमें मिल जायेगा। इस तरह अगर सामने उपस्थित इस समस्याको हम सीधेसे-सीधे रूपमें देखें तो उसका हल आसान है। आपको एक ऐसा क्षेत्र चुनना चाहिए जिसमें आप काम कर सकें। वहाँ रहकर आप उसका चतुर्मुखी विकास करें। आपसे अथवा संसारके किसी भी मनुष्यसे इससे अधिक कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि आपने ऐसा किया तो इसका मतलब यह होगा कि आप समाजको जो-कुछ दे सकते थे, सो आपने अच्छेसे-अच्छे ढंगसे उसे दिया।

मैं चाहता हूँ कि आपके पास कोई आदमी भेज सकता। किन्तु दुर्भाग्यसे मेरे पास ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो वहाँ जाकर संगठन कर सके। यह एक मजबूरी है। आपको चाहिए कि आप स्वयं ही इस कार्य में विशेष दक्षता प्राप्त कर लें। यदि आपके पास कोई कार्यकर्त्ता हो तो वह भी इस कार्यमें कुशल बने। गोविन्द बाबू क्या कर रहे हैं? और क्या वहाँ खादी विभागका अभीतक कोई भी प्रशिक्षित तथा कुशल व्यक्ति नहीं है?

उड़ीसाका विचार मुझे एक दुःस्वप्नकी भाँति परेशान करता है। इतना सुन्दर देश, और फिर भी गरीबीसे त्रस्त; अच्छे कार्यकर्ता रहते हुए भी इतना असहाय। बहुत ज्यादा घूम-फिर कर आप नाहक ही अपना स्वास्थ्य खराब न करें; बल्कि

  1. गोपबन्धु दासने १० सितम्बर, १९२६ के अपने पत्र में उड़ोसाकी बादका विवरण लिखा था (एस० एन० १०९९२) ।