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४६०. टिप्पणियाँ

सनातन प्रश्न

'नवजीवन' के एक मुमुक्षु पाठक चाहते हैं कि उनके प्रश्नोंके उत्तर 'नवजीवन' में ही दिये जायें। इन प्रश्नोंका उत्तर देते हुए मुझे कुछ संकोच होता है। ऐसे प्रश्नोंका उत्तर 'नवजीवन' में देनेका अधिकार है कि नहीं, इसमें मुझे शंका है। फिर ये प्रश्न कुछ नये भी नहीं हैं। वे अनादि कालसे पूछे जाते रहे हैं। तथापि प्रश्नकर्ताक आग्रहको न मानना भी सम्भव नहीं है। इसलिए मैं उनके प्रश्नोंको उद्धृत करके उनके उत्तर देनेकी ढिठाई करता हूँ।

परमेश्वरका ध्यान धरना चाहिए या नहीं?

परमेश्वरके स्वरूपको बुद्धिके द्वारा जानकर उसे हृदयंगम करनेके लिए ध्यान धरना तो जरूरी ही है।

अगर ध्यान जरूरी हो तो उसकी प्रक्रिया क्या हो?

परमेश्वर निरंजन, निराकार और ध्यानसे भी परे है। निर्गुणकी साधना देहधारियोंके लिए कठिन है। इसलिए उन्हें सगुण, व्यक्त रूपका ध्यान धरना चाहिये। इस युगमें और इस देशमें तो वह दरिद्रनारायणके रूपमें ही दिखाई देता है। इसलिए उसका ध्यान करनेका मार्ग दरिद्रोंकी सेवा करना ही है। दरिद्रोंकी सेवा अनेक रीतिसे हो सकती है। किन्तु भारतमें दारिद्रयकी जड़ आलस्य और बेकारी है। इसलिए इस आलस्यको करने और उन्हें निर्दोष काम देनेके लिए हमारा कर्तव्य है कि हम चरखा चलायें और उन्हें भी चरखा चलानेकी प्रेरणा दें। हमें प्रत्येक श्वासमें इस नारायणका उच्चारण करना और चरखेके प्रत्येक चक्करमें उस नारायणको सन्तुष्ट होता और हँसता देखना चाहिए।

ईश्वरका रूप कैसा है?

इस प्रश्नका उत्तर ऊपर आ गया है, इसलिए अब उसे देना जरूरी नहीं रहता। किन्तु मैं दोहराता हूँ कि अपना स्वरूप यह आप ही जानता है; या जो मनुष्य उसे जान भी सके हैं, वे उसका वर्णन नहीं कर सके हैं। वह शब्दोंसे परे है। उसका परिचय देने लायक भाषा अभी बनी ही नहीं है। इसीसे, हमें जैसा अनुकूल पड़ता है, उसे हम मत्स्य, वराह, नरसिंह और मनुष्य इत्यादिके रूपमें पूजते हैं। हम सभीका यह करना सही भी है और गलत भी। अपनी-अपनी निगाहमें हम सभी सच्चे हैं, विरोधीकी निगाहमें झूठे हैं और परमात्माकी निगाहमें सच्चे भी हैं और झूठे भी।