पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 31.pdf/८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४९
'महात्माजीका हुक्म'

पाने व देनेका उपाय हमारे हाथ लगेगा। क्या ऐसा कोई मार्ग नहीं है, या नहीं हो सकता है, जिससे कि हरएक लड़का अपना खर्च खुद निकाल सके? शायद ऐसा कोई मार्ग न भी हो; किन्तु हमारे सामने प्रस्तुत प्रश्न भी यह नहीं है कि ऐसा मार्ग कोई है या नहीं। इसमें जरूर कोई शक नहीं है कि जब हम इस महँगी शिक्षा प्रणालीका त्याग करेंगे तभी, अगर ऊँचे दर्जेकी शिक्षा पानेकी अभिलाषा इष्ट वस्तु मान ली जाये तो, हमें अपनी परिस्थितिके अनुरूप उसे प्राप्त करनेका मार्ग मिल सकेगा। ऐसे किसी भी प्रसंगपर काम आनेवाला महामन्त्र यह है कि जो वस्तु करोड़ों आदमियोंको न मिल सकती हो उसका हम खुद भी त्याग करें। इस तरहका त्याग करनेकी योग्यता सहसा तो हममें नहीं आ सकती। पहले तो हमें ऐसा मानसिक रुझान पैदा करना पड़ेगा कि जिससे करोड़ोंको प्राप्त न हो सकनेवाली चीजें और सुविधाएँ लेनेकी इच्छा ही पैदा न हो। उसके बाद हमें शीघ्र ही अपने रहन-सहनका ढंग उसीके अनुकूल बना डालना चाहिए।

ऐसे आत्मत्यागी बहु दृढ़ प्रतिज्ञ कार्यकर्ताओं की एक बड़ी सेनाके बिना आम लोगोंकी तरक्की मुझे असम्भव दिखती है। और उस तरक्कीके बिना स्वराज्य-जैसी कोई चीज नहीं मिल सकती। गरीबोंकी सेवाके हितार्थ अपना सर्वस्व त्याग करनेवाले कार्यकर्ताओंकी संख्या जितनी बढ़ती जायेगी उतने ही दर्जेतक हम स्वराज्यकी ओर बढ़ते जायेंगे, ऐसा मानना चाहिए।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २४-६-१९२६

५९.'महात्माजीका हुक्म '

एक अध्यापक लिखते हैं :

मेरी पाठशालामें लड़कोंकी एक छोटी टोली है जो नियमित रूपसे कई महोनोंसे चरखासंघको १,००० गज अपना हाथकता सूत भेजा करती है। वे इस तुच्छ सेवाको आपके प्रति अपने उत्कट प्रेमके कारण ही करते हैं। यदिउनसे चरखा चलानेका कोई कारण पूछता है तो वे उत्तर देते हैं कि 'यह महात्माजीका हुक्म है। इसे तो मानना ही है।' मैं समझता हूँ कि लड़कोंमें इस प्रकारको प्रवृत्तिको हर तरहसे प्रोत्साहन देना चाहिए। गुलामीके भावमें और इस प्रकारकी वोर-पूजा अथवा निःशंक आज्ञापालनमें बड़ा अन्तर है। इन लड़कोंकी बड़ी लालसा है कि उनको आपका अपने हाथों लिखा हुआ सन्देश मिले, जिससे वे उत्साहित हो सकें। मुझे पूर्ण विश्वास है कि उनको यह प्रार्थना स्वीकृत होगी।

मैं नहीं कह सकता कि जो मनोवृत्ति इस पत्रसे झलकती है वह वीर-पूजा है अथवा अन्धभक्ति है। मैं ऐसे अवसरोंको समझ सकता हूँ जब किसी आज्ञाका पालन

३१-४