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भेंट : डॉ० भगवानदाससे

राज्योंमें और आधुनिक भारतके निर्वाचनमें अच्छे प्रतिनिधि नहीं चुने जाते। यही बड़ा भारी दोष प्रचलित सेल्फ गवर्नमेंट या स्वराज्यके प्रचारोंमें हो रहा है। यही एक बलवान कारण है कि में कौंसिल प्रवेशका सख्त विरोध करता हूँ । जबतक जनताको स्वत्वका ज्ञान नहीं हुआ है और उनकी बुद्धिकी जागृति नहीं हुई है तबतक लोग किसी कानून द्वारा प्रतिनिधित्वकी शुद्धताको नहीं संभाल सकेंगे । और मेरी आजकी प्रवृत्तिमें इस शुद्धिका बड़ा हिस्सा है। आरम्भसे आत्मशुद्धि, तपस्या, और इसके द्वारा जनताकी शक्ति वृद्धि करनेका मेरा प्रयत्न रहा है। ऐसी तपस्यासे उनकी बुद्धि भी ठीक हो जायेगी और इसी कारणसे असहयोगके आरम्भके बाद जो म्युनिसिपैलिटीका चुनाव हुआ तब यहाँ अच्छे आदमी चुने गये. बिना परिश्रम या व्ययके । जब वह तपस्याका वातावरण हट गया तब गड़बड़ होने लगी ।

इस देशकी पुरानी प्रथा यह है कि तपस्या और विद्या यह दो पदार्थ हैं। दोनोंका सम्पादन करनेसे ही सच्चा मनुष्यत्व कहिए, ब्रह्म सम्पन्नत्व कहिए, ब्राह्मणत्व कहिए, जिसे ही शायद आप स्वत्व पहिचानना कहते हैं, सिद्ध होता है। पुराण में कथा है, रावणादिने बड़ी तपस्या की, पर उसका उनको भोग रूप फल मिला। वे 'सत्व' की, आत्मस्वरूपकी, ओर नहीं गये। मेरे विचारमें जो असहयोगके बाद हवा बँधी उसमें तपस्याका अंग था, पर विद्याका अंग नहीं था, इसी कारणसे वह हवा स्थिर न रही, और दो ही तीन वर्षमें लुप्त हो गई । यह मेरा विचार आप ठीक समझते हैं या नहीं ?


यह प्रायः ठीक है। थोड़े सुधारकी आवश्यकता है। उस समयकी हमारी तपस्याका प्रमाण कम था । यदि हमारी तपस्याका प्रमाण योग्य रहता तो विद्याका हम अवश्य संपादन कर लेते । एक जगह 'गीताजी' में भगवानने कहा है कि जिसकी भक्ति चिरस्थायी रहती है उसको बुद्धि वही दे देता है। इस वाक्यपर मेरी बड़ी श्रद्धा है।


मैं भी इसको मानता हूँ, पर भक्ति इस प्रकारसे सफल तभी होती है जब उसका लक्ष्य, उसका इष्ट, उसका विषय सद्विषय हो, अन्यथा नहीं। 'गीता' में ही कहा है, "दूसरे देवताओंको पूजनेवाले दूसरे देवताओंके पास जाते हैं, मेरा पूजनेवाला मेरे पास आता है।" और भी कहा है कि "ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् " और भी कहा है कि "ज्ञानके सदृश दूसरा पवित्र करनेवाला नहीं।" इन बातोंको विचार करके मेरे मनमें ऐसा रहा है कि तपस्याके आरम्भसे सच्चे अभीष्टका ज्ञान भी अत्यावश्यक है, नहीं तो तपस्यासे संचित शक्ति अवश्य कुमार्गपर चली जायेगी, जैसे रावण आदिकी। क्या यह ठीक नहीं है?

बिलकुल ठीक है।

इसी वास्ते में असहयोगके आरम्भसे यत्न कर रहा हूँ कि तत्कालका भी जो स्वराज्य है उसका अर्थात् बीचवाले औपनिवेशिक स्वराज्यका जो मुख्य तत्व है, अर्थात् योग्य प्रतिनिधियोंका चुनना, उसके विषयमें असहयोग रूपी तपस्याके साथ-साथ

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