३७०. अन्धे कतैये
अभी हाल बंगलोरमें जो खादी-प्रदर्शनी हुई थी, उसमें एक अन्धा कतैया आया था। उसके सम्बन्धमें प्रकाशित विवरण पढ़कर एक भाईने मुझे पत्र लिखा है, जिसमें हेलेन हंट जैक्सनकी कुछ सुन्दर काव्य-पंक्तियाँ भी उद्धृत को हैं। वे निम्न प्रकार है :
में अन्धे कतैयेकी तरह अपना दिन बिताता हूँ -- कर्म-रत;
मैं जानता हूँ कि सभी तार
ठीक निकलते चले जायेंगे, ठीक बॅटते चले जायेंगे;
में जानता हूँ, हर दिन
मेरे लिए कोई काम लेकर आयेगा;
अधिक जाननेकी मुझे कोई चाह नहीं, कोई इच्छा नहीं, क्योंकि में अन्धा हूँ ।
मैं क्या करता हूँ, क्या कातता हूँ,
उसका नाम, उसका उपयोग में नहीं जानता;
में केवल यही जानता हूँ कि-
किसीने आकर मेरे--
हाथमें तार पकड़ाया और कहा: “महोदय, आप
अन्धे हैं, किन्तु यह काम कर सकते हैं।"
कभी-कभी ये तार ऐसे बेढंगे, इतनी तेजीसे और
इतने उलझे रूपमें निकलते हैं कि -
लगता है, मानो सिरपर से तूफान बहा चला जा रहा है।
और तब मुझे डर लगता है --
उसके थपेड़ोंसे भूशायी हो जानेका,
फिर भी में सुरक्षाके लिए कहीं भागनेकी हिम्मत नहीं करता,
क्योंकि मैं अन्धा हूँ ।
में इस विश्वाससे भरा रहता हूँ--
पता नहीं क्योंकि उन तारोंको
कहीं किसी ऐसे परिधानमें स्थान मिलेगा,
जो कालातीत होगा, जो किसी जातिके साथ नहीं मिटेगा ।
इसलिए मैं अपनेको अभिशप्त नहीं मानता,
द्यपि में अन्धा हूँ |
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