बोलकर लिखाया गया मेरा वह पत्र[१] तो तुम्हें मिल ही गया होगा जिसमें मैंने मासिक धर्मके दौरान स्त्रियोंके अलगावके सवालकी चर्चा की है। मुझे यों ही बख्श मत दो, बल्कि जबतक मेरा मतलब पूरी तरह समझ न जाओ तबतक मुझे कोंचती रहो। और समझ जानेपर भी जैसा मुझे रुचता है वैसा नहीं बल्कि जैसा तुम्हारा जी करे वैसा ही करना।
तुम कृष्णदाससे हिन्दी में बातचीत तो कर रही हो? मैंने तुम्हें यह नहीं बताया कि इंधर तुम्हारी हिन्दीमें पहलेकी अपेक्षा कम गलतियाँ होती हैं। जो थोड़ी-बहुत गलतियाँ मिलती हैं, उन्हें शुद्ध करनेका मुझे समय ही नहीं मिलता।
एन्ड्रयूज कल मेरे ही साथ यहाँसे चलेंगे, लेकिन मैं वेल्लूर में उतर जाऊँगा और वे आगे मद्रास चले जायेंगे। पता नहीं, तुम्हें अपना वह सुन्दर नकशा वापस मिला या नहीं।
सस्नेह,
बापू
सौजन्य : मीराबहन
३८५. पत्र : आश्रमकी बहनोंको
मौनवार, भाद्रपद सुदी २ [२९ अगस्त, १९२७ ][२]
तुम्हारी ओरसे रमणीकलालभाईका तैयार किया हुआ पत्र मिला।
मेरा मुद्दा ही तुम्हारी समझमें नहीं आया उसमें कुछ तो अध्याहार ही था। पत्रोंमें तो ऐसा ही होता है। अध्याहार पूरा कर लें, तो उससे यह अर्थ निकलेगा।
जब हम किसी सेवाकार्य में लगे हों, तब दूसरेका विचार, जबतक कि वह आवश्यक न हो, हम न करें। यदि करेंगे तो मोह माना जायेगा। मैं यहाँ, बीमार आदमीसे जितनी हो सकती है उतनी, आवश्यक सेवा कर रहा हूँ। ऐसे समय गुजरातके संकटके बारेमें काम करने या आश्रमके प्रश्नोंको, मैं उन्हें वहाँ रहते हुए जिस तरह हल करता उस तरह, हल करनेका विचार करना मोह है। तुम भी उस स्थिति में होओ, तो तुम्हारे लिए भी ऐसा करना मोह होगा। इसमें बड़े और छोटेका सवाल नहीं है। तुम वहाँ अपने सेवाकार्य में लगी हुई हो। मान लो कि मैं बीमार हो जाऊँ या वहाँकी तरह यहाँ भारी बाढ़ आ जाये, तो तुम्हारे लिए, भले ही तुम मेरे जितनी ऊँची न मानी जाती होओ, (यहाँ दौड़ आनेका) अनावश्यक विचार करना मोह ही होगा। इसका अर्थ यह नहीं होगा कि तुम्हें मुझसे या मद्रासकी बाढ़से हमदर्दी नहीं है। हमदर्दी होनी चाहिए, जिससे तुम्हारा दयाभाव सख्त बीमार