५६. पत्र : आश्रमकी बहनोंको
मौनवार, आश्विन सुदी ८ [४ अक्टूबर, १९२७ ]
तुम्हारी तरफसे इस बार जो उत्तर आया है, उसकी तो मानो मैंने अपने पिछले पत्रमें कल्पना ही कर ली थी। किसीके मनमें किसीके विरुद्ध जो-कुछ भी भरा हो, उसे वह बाहर निकाल फेंके, यह आत्मशुद्धिकी पहली सीढ़ी है। हमारे पड़ोसीके प्रति हमारे मनमें जो मैल हो, शंका हो, उसे जबतक हम दूर न कर दें, तबतक उसके प्रति प्रेमका पहला पाठ भी हम अमलमें नहीं ला सकते। आश्रममें कमसे कम इतना तो करनेकी हमारी शक्ति होनी ही चाहिए।
प्रार्थनाके बारेमें अभी खूब विचार करो। मैं भी इतना तो मानता ही हूँ कि आजकल सात बजेका जो विशेष समय है, उसे तो कभी छोड़ना ही नहीं चाहिए। अपने वर्गको जानदार बनानेका विशिष्ट धर्म तुमने स्वीकार किया है। अभी तो मैं इतनी ही बात कहता हूँ कि जिसकी शक्ति और इच्छा हो वह बहन दूसरे किसीकी चर्चा किये बिना चार बजेकी प्रार्थनामें जानेकी प्रतिज्ञा करे और फिर चाहे जो कष्ट हो, उसे सहन करके भी जबतक तन्दुरुस्त हो तबतक उसका पालन करे।
बापूके आशीर्वाद
- गुजराती (जी० एन० ३६६९) की फोटो-नकलसे।
५७. पत्र : विट्ठलदास जेराजाणीको
आश्विन सुदी ८ [४ अक्टूबर, १९२७]]
तुम्हारी पत्रिका देखी। पत्रिका प्रकाशित करके तुमने ठीक किया। अब उसे आग्रहपूर्वक निभाना। पत्रिकामें खादीकी स्तुतिको एकसे ज्यादा कालम मत देना । उसे तो खादी-सम्बन्धी समाचारोंसे भरना । विभिन्न प्रान्तोंमें खादी कैसी और कितनी प्रगति कर रही है, इसके समाचार देना। इसके लिए लगकर परिश्रम करनेकी और