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६४. भाषण : कोइलपट्टीको सार्वजनिक सभामें

५ अक्टूबर, १९२७

महात्माजीने सभी अभिनन्दनपत्रों और थैलियोंको स्वीकार करते हुए धन्यवाद दिया और कहा कि जो कुछ भी मुझे यहाँ प्राप्त हुआ है, उसे सभाके अन्त में यहीं नीलाम कर दूंगा, जैसा कि मैंने अन्य स्थानोंपर भी किया है, क्योंकि मैं ऐसी वस्तुओंको अपने पास नहीं रखना चाहता; फिर मेरे लिए इन्हें एक स्थानसे दूसरे स्थानतक उठाये फिरना भी मुश्किल है। इस क्षेत्रके लोग आसानीसे इन वस्तुओंको नीलामीमें खरीदकर प्राप्त कर सकते हैं और इस प्रकार वे जो रकम देंगे उसका उपयोग गरीबोंको राहत देने के लिए तथा दरिद्रनारायणकी सेवाके लिए किया जायेगा ।

एक अभिनन्दनपत्रमें कहा गया था कि दक्षिण भारतमें ब्राह्मण और अब्राह्मणोंके सम्बन्ध उतने ही अधिक कटु हो गये हैं, जितने कि उत्तर भारतमें हिन्दुओं और मुसलमानोंके हैं। इसके सम्बन्धमें महात्माजीने कहा कि में इस समस्याको समझनेकी कोशिश कर रहा हूँ और में अब्राह्मण आन्दोलनके नेताओंको इस मामलेपर अपने साथ विचार-विमर्श करनेके लिए जितना समय दे सकता हूँ, उतना देता हूँ। मेरा खयाल है कि अब मैं इस समस्याको समझ गया हूँ और मैं 'यंग इंडिया' में इस प्रश्नके सम्बन्धमें लिखकर[१] इन दोनों सम्प्रदायोंके बीचके मनमुटावको दूर करनेकी तथा उनमें सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करनेकी कोशिश करूंगा। इससे ज्यादा में और कुछ नहीं करूंगा। क्योंकि मुझे भरोसा नहीं है कि इनमें से किसी भी सम्प्रदायके नेतागण मेरी रायपर अमल करेंगे। दोनों सम्प्रदायोंके नेताओंको चाहिए कि वे अपने मतभेदोंपर विचार करनेके लिए मिलें और सच्चे दिलसे परस्पर समझौता करनेका प्रयत्न करें। ब्राह्मणोंके विरुद्ध लगाये गये अब्राह्मणोंके आरोप कभी-कभी उचित भी होते हैं। लेकिन कभी-कभी वे बातको बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। मैं उनकी सारी युक्तिसंगत बातोंको स्वीकार कर लूंगा। लेकिन अब्राह्मणोंमें ब्राह्मणोंके प्रति बिना वजहकी घृणा मुझे पसन्द नहीं। मैं अब्राह्मणोंके इस कथनसे सहमत हूँ कि ब्राह्मण अपने कर्तव्यका ठीक तरह पालन नहीं कर रहे हैं। लेकिन में अब्राह्मण नेता- ओंके इस कथनको स्वीकार नहीं कर सकता कि सारी बुराइयाँ ब्राह्मणोंने ही पैदा की हैं। मुझे यह भी भरोसा नहीं है कि मेरी सलाहपर ब्राह्मण अपने प्राचीन अधि- कारोंको छोड़ने के लिए तैयार हो जायेंगे। लेकिन मैं उनसे कहूँगा कि यह लड़ाई उचित नहीं है और देश-हितके विरुद्ध है। इन सबसे ज्यादा, में दोनों सम्प्रदायोंके नेताओंसे

  1. १. देखिए " वर्णाश्रम और उसका विरूपीकरण ", १७-११-१९२७।