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७४. भाषण : त्रिवेन्द्रम्में

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[१० अक्टूबर, १९२७ या उससे पूर्व ] १

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नागरकोइलकी तरह ही यहाँ भी मेरा अधिकांश समय इसी समस्यापर बात- चीत करते बीता है । वैसे तो दीवान साहबसे मैं अंशतः सामाजिक शिष्टाचारके नाते मिला था, लेकिन स्वभावतः हमने इस जटिल समस्याकी चर्चा की। और सभामें मैं कुछ मिनट देरसे इसलिए आया कि मैं रीजेंट महारानी साहिबासे मिलने चला गया था और उनसे भी मैंने इस विषयपर बातचीत की। एक बार त्रावणकोरको देख लेनेके बाद इस मनोहारी प्रदेशको फिर देखनेकी लालसा मेरे मनमें बराबर बनी रही है। इसकी अत्यन्त सुन्दर दृश्यावली, कन्याकुमारीका इस राज्यमें होना और यहाँकी स्त्रियोंकी सादगी और स्वतन्त्रता, इन चीजोंने जब मैं पहले-पहल यहाँ आया था तो मेरा मन मोह लिया था। किन्तु इन तमाम विचारों और याददाश्तोंसे मुझे बराबर जो आनन्द प्राप्त हुआ, उसमें इस विचारके कारण एक गम्भीर व्याघात पड़ता रहा है कि अस्पृश्यता त्रावणकोरमें सबसे भयंकर रूपमें प्रकट हुई है, और यह सोचकर मेरा मन बहुत व्यथित रहा है कि यह बुराई इस भयंकर रूपमें एक ऐसे प्राचीनतम हिन्दू- राज्यमें बनी हुई है, जिसका स्थान शैक्षणिक प्रगतिकी दृष्टिसे सारे भारतमें सर्वोच्च है। और इस उग्रतम रूपमें अस्पृश्यताके अस्तित्वसे मुझे बराबर इतना दुःख इसलिए हुआ है कि मैं अपने-आपको हिन्दूधर्मकी भावनासे ओत-प्रोत एक सच्चा हिन्दू मानता हूँ। आज हम जैसी अस्पृश्यतामें विश्वास करते हैं और जैसी अस्पृश्यता बरतते हैं, वैसी अस्पृश्यताके लिए उन ग्रन्थोंमें, जिन्हें हम हिन्दू शास्त्र कहते हैं, मुझे कहीं कोई आधार नहीं मिला है। लेकिन जैसा कि मैंने अन्यत्र बार-बार कहा है, यदि मुझे यह लगेगा कि हिन्दू-धर्म सचमुच अस्पृश्यताका समर्थन करता है तो मुझे हिन्दू-धर्मको त्याग देनेमें भी कोई हिचकिचाहट नहीं होगी। कारण, मैं मानता हूँ कि सच्चे धर्मको कभी भी नीति-शास्त्र और नैतिकताके सिद्धान्तोंसे असंगत नहीं होना चाहिए। लेकिन, चूंकि मैं मानता हूँ कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्मका अंग नहीं है, इसलिए इस धर्मसे मैं चिपटा हुआ हूँ, किन्तु साथ ही दिन-दिन इस घोर बुराईके प्रति मैं अधिकाधिक असहिष्णु होता जा रहा हूँ। इसलिए जब मैंने देखा कि यह प्रश्न त्रावणकोरको आन्दोलित कर रहा है तो इसमें पड़नेमें मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। लेकिन, इस प्रश्नको मैंने राज्यको कोई परेशान करनेके खयालसे अपने हाथमें नहीं लिया है। कारण, मैं मानता हूँ कि महाविभवा रीजेंट महारानीको अपनी प्रजाके कल्याणकी बड़ी चिन्ता

  1. १. “मैसेज टू त्रावणकोर" ( त्रावणकोरको सन्देश ) शीर्षकके अन्तर्गत प्रकाशित ।
  2. २. महादेव देसाई “ साप्ताहिक पत्र " के अनुसार गांधीजी ९ और १० अक्टूबर, १९२७ को त्रिवेन्द्रम्में थे और उन्होंने त्रावणकोरके महाराजा और महारानीसे मिलनेके बाद यह भाषण दिया था; देखिए "भाषण : नागरकोइलमें ", ८-१०-१९२७ भी ।