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हिन्दू कानून और मैसूर

अगर्चे यह पुरस्कार अब मंसूख मान लिया जाना चाहिए, मगर कोई योग्य निबन्ध तैयार हो और वे मन्त्रीके पास भेजे जायें तो परीक्षकोंको उनकी जाँच करनेके लिए तैयार करनेमें या उनके योग्य साबित होनेपर फिरसे पुरस्कार देनेके लिए दाताओंको राजी करने में कठिनाईकी आशंका नहीं करता। अगर यथेष्ट लेखक लेख लिखने या फिरसे नया लेख लिखनेका इरादा जाहिर करते हुए पहलेसे ही अपनी योग्यता और नाम लिख भेजें तो मैं उम्मीद करता हूँ कि मैं पुरस्कारोंके लिए फिरसे सूचना निकाल सकूँगा और शर्तें तो फिर भी वे ही रहेंगी।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १३-१०-१९२७

८५. हिन्दू कानून और मैसूर

बंगलोरके श्रीयुत भाष्यम् अय्यंगार लिखते हैं :

आजके प्रचलित हिन्दू कानूनके सिद्धान्त दकियानूस और न्याय तथा समताकी हमारी भावनाके विरुद्ध हैं। मैं नीचे थोड़े-से उदाहरण देता हूँ:[१]


ऐसे कई उदाहरण हैं मगर मैंने कुछ थोड़े-से ही चुने हैं।

सोचने-समझनेवाले लोगोंको ये तमाम विधान बहुत अखरते हैं, और वे सुधार चाहते हैं। कानूनको बदलनेका एकमात्र रास्ता है विधान बनाना । लोकमतको जाने बिना विधानसभा कोई कानून बना नहीं सकती। और इसका एकमात्र रास्ता यह है कि इस उद्देश्य के लिए एक समिति नियुक्त की जाये जो लोकमतका पता लगाये । इसलिए मैंने, हमारी विधानसभाके पिछले बजट अधिवेशन में इस प्रश्नपर विचार करने, गवाहियाँ लेने और उनके आधारपर कानून बनाने के लिए सुझाव देनेवाली एक समिति नियत करनेका प्रस्ताव किया था। उसे सभाने एकमत होकर स्वीकार किया था ।

हालाँकि राज्य-भरमें लोग इसे चाहते हैं, सगर वह समिति अभी बनी नहीं है। इसमें डर यह मालूम पड़ता है कि अभीतक ब्रिटिश सरकारने अपने शासित प्रदेशोंमें इस मामले में कुछ नहीं किया है, इसलिए मैसूरके किसी काम पर शायद लोग हँसें । जैसा कि आपने कहा था, यह खयाल बेहूदा है। मैसूर यह काम करनेके लिए विशेष रूपसे उपयुक्त है, जबकि ब्रिटिश भारतके सामने सचमुच कठिनाइयाँ हैं। मैसूरको खास सुविधाएँ हैं, जिनकी उपेक्षा करना हमारे लिए बुद्धिमानीकी बात नहीं होगी। हमें सौभाग्यसे अत्यन्त ऊँचे खयालातके

  1. १. पत्रलेखकने उत्तराधिकार, पुनर्विवाद, अन्तर्जातीय विवाह, दत्तक पुत्र लेने आदिके बारेमें दस विधानोंका उल्लेख करते हुए सुझाव दिया था कि मैसूर राज्यको कानून बनाकर वांछनीय सुधार करने चाहिए।